Monday, January 24, 2011

मुसाफिर

भीड में खडे लोग

और इंतज़ार में

खडा मुसाफिर

एक दूसरे से

अनजान थे लेकिन

अचानक अजनबीपन से उपजा

मैत्री भाव

बात करने की एक

वजह बनता गया

कभी अनजान चेहरों

के कौतुहल से अलगाव

तो कभी जिज्ञासा बढी और

सबकी चिंता,दुख अपने लगने लगे

एक पल के लिए ऐसा भी

हुआ कि अपनी उधेडबुन

को भूल कर मन

सब के बीच बावरा बन निकल पडा

जहाँ उसे लिफ्ट लेने के लिए

खडा होना था

वहाँ पर न कोई लिफ्ट दे रहा था

न ले रहा था

सब कुछ ठहराव मे भागने जैसे था

करीब-करीब अपने आप को

भीड मे खो देने की कवायद जैसा

वह घर से निकला

भीड का हिस्सा बना

और फिर खो गया

उस रास्ते की धुन में

जिसकी मंजिल पर दो रास्ते

जाते थे

एक सीधा दिल का

और दूसरा दूनियादारी का

अफसोस भीड,रास्ता और

मंजिल तीनों का मिज़ाज

अलग था उसके मिज़ाज़ से

लेकिन उसका सफर जारी रहा

और थोडा-थोडा दिलचस्प भी

मंजिल का पता पूछने तक...।

डा.अजीत

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 25-01-2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.uchcharan.com/

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी रचना ने बहुत सी यात्राओं के दृश्य याद करा दिए ...

संजय भास्‍कर said...

ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना

ज्योति सिंह said...

उसके मिज़ाज़ से लेकिन उसका सफर जारी रहा और थोडा-थोडा दिलचस्प भी मंजिल का पता पूछने तक.
bahut sundar bhav ,gantantra divas ki badhai aapko ,vande matram .