Sunday, August 31, 2014

सात सपनें

सात सपनें: खुली नींद के

---------

तुम एक ख़्वाब हो
तो मै क्या हूँ
अलसाई नींद।
*******
मै समन्दर
तेरे इन्तजार में खारा रहा
तुम मुझ तक आते आते सूख गई
मीठी नदी।
*********
तुम्हारी परछाई
तुमसे बड़ी है
और मै छाया में खड़ा
तुम्हें देखता हूँ।
***********
तुम्हारी आँखों का रास्ता
कितना फिसलन भरा है
बात बिगड़े
तो बिगड़ती ही चली जाती है।
************
तुमने जब से मन ही मन में
मुस्कुराने का हुनर सीख लिया
मै हंसता हूँ अकेले में।
*********
बातचीत में कई  बार
तुमने मुझे पागल कहा
तब से
पागलपन अच्छा लगता है
समझदारी के बीच।

***********
तुम्हारी पलकें
चश्में के बोझ में थक गई है
कुछ दिन
उधार ही सही
मेरी आँखों से दुनिया देखो।

© अजीत


गजल

मिलते ही कई शर्त लगा देता हूँ
यूं खुद को भूलने की दवा देता हूँ

डाकिया भी खत तेरे कैसे लाता
हमेशा गलत घर का पता देता हूँ

मौत किस्तों में दर पर दस्तक दे
दवा में थोड़ा जहर मिला देता हूँ

इतनी ही नेकी कमा पाया बस
रोतें दिलों को थोड़ा हंसा देता हूँ

यकीन करें न करें उसकी मरजी
पी कर दिल की बातें बता देता हूँ

चाहे रिश्तें हो या फिर आमदनी
हासिल करके सब गवां देता हूँ

गुस्ताखियाँ बर्दाश्त यूं भी करते है
फख्र करने की एक वजह देता हूँ

© अजीत

Saturday, August 30, 2014

अदाकारी

इश्क की पहरेदारी हमसे न होगी
मुहब्बत में अदाकरी तुमसे न होगी

ये ताल्लुक है कि बोझ है वफा का
हर वक्त ये तरफदारी हमसे न होगी

हंस सकता हूँ खुद की कमजोरी पर
देख लो ये कलाकारी तुमसे न होगी

गुजारिश पर लिखना छोड़ दिया हमनें
दरबार की ये फनकारी हमसे न होगी

इश्क में अक्ल बहुत लगाते हो तुम
मेरी रूह की सवारी तुमसे न होगी


© अजीत





Thursday, August 28, 2014

दर्द राग

कदम जब खुद का बोझ ढ़ोते हुए
थक जाते है
शिराएं जब कराहती है
करती है चस-चस
तब उपजता है दर्द का अनुभूत राग
धमनियां ढपली बन थाप देने लगती है
त्वचा के रोमछिद्रों से
रिसता है दर्द
बाहर की हवा
अंदर की स्वरलहरियों को गोद उठा
उड़ा जाती है उस देश
जहां दर्द के संगीत घराने  बसते है
दर्द तन का हो या मन का
उसमें कूटबद्ध होता है
एक विचित्र संगीत
इसके आलाप
आरोह-अवरोह के सहारे नही चलते
बल्कि उनका अपना एक शापित नियम है
दिल पर चोट दो
तन को छोड़ दो
जख्मों के तार कसों
और फिर सुनों मौन का नाद
हंसना रोना गाना और बजाना
एक ही सिक्के के चार पहलू है
ये सिक्का जिन्दगी हमें
खोटे सिक्के की शक्ल में देती है उधार
जिसे न कभी चला पाते
और न फैंक पाते है
दर्द के सुगम संगीत के प्रसारण के लिए
कुछ दारुबाज दोस्तों का
तानपुरा उधार मांग
मंच पर चढ़ जाता हूँ
लड़खड़ाता हुआ
अपने गमों को भूली दुनिया
खुशी तलाशने के चक्कर में
मुझे फनकार समझ बैठती है
इसका अपना एक अलग दर्द है।

© अजीत


Wednesday, August 27, 2014

कमजोरी

कमजोर आदमी ही लिख सकता
कमजोर कविता
जी सकता है कमजोर पलों को
पूरी शिद्दत के साथ
इसलिए खुद को
एक कमजोर कवि कहे जाने पर
कोई ऐतराज़ नही है मुझे
हाँ ! कुछ मित्रों को मेरे कवि होने पर
जरुर हो सकता है ऐतराज़
कमजोरी मेरे लिए कभी कमजोरी नही रही
बल्कि ताकत के छद्म अभिमान से
कहीं बढ़कर थी मेरी कमजोरी
कमजोरी ने हमेशा हौसला दिया
अपनी सीमाएं बताने का
कमजोरी ने ताकत दी
माफी मांगने की
अपनी कमजोरी पर खुलकर बात करना
हमेशा खोया आत्मविश्वास अर्जित करने का
तरीका रहा है मेरा
मेरी कमजोरी आत्म आलोचना की
अवैध सन्तान नही है बल्कि
ताकतवर या समझदार न बनने की अनिच्छा भर है
अपनी कमजोरियों को दूर करके मै
सभ्य और ताकतवर नही बनना चाहता हूँ
बल्कि हर कमजोर आदमी का हाथ थाम
उसे चूमना चाहता हूँ
हर रोते हुए शख्स के गले मिल
रोना चाहता हूँ
त्याग कर पुरुषोचित अभिमान
हाशिए पर जीते मनुष्य के दुखों पर
सुबकना चाहता हूँ उसके साथ
आज भी कमजोरियों पर पार पाए शख्स
समझदार भले ही लगें मगर
अपने नही लगते है
अपनेपन को बचाए रखने के लिए
बचा कर रखना चाहता हूँ अपनी कमजोरी
इस दौर में जहां रोज़ हमें समझदार दिखना पड़ता है
अपनी कमजोरियों के साथ
निपट बुद्धू ही ठीक हूँ मै
संसार में यह संतुलन जरूरी है
वरना समझदार और ताकतवर लोगो से
दुनिया बहुत यांत्रिक और नीरस लगने लगेगी
चूंकि संयोग से मै भी एक मनुष्य हूँ इसलिए
जितनी जिम्मेदारी ताकतवर लोगो की
इस सृष्टि को बचाने की है
उतनी ही मेरी भी है
मेरा दायित्व बोध यही कहता है
भले ही मै एक कमजोर इंसान हूँ ।

© अजीत

Tuesday, August 26, 2014

दोस्त

लाइक कमेन्ट शेयर
ये तीन अधखुले दरवाजे थे
जहां से तुम्हारी दुनिया शुरू होती थी
और शायद बंद भी
लिखे हुए के बीच बहुत सा
बिना लिखा हुआ भी था
जिसे हद दर्जे का दुस्साहस भी
स्टेट्स न बना पाया
म्यूचुअल दोस्त दरअसल
म्यूट थे उनका होना संख्याबल से अधिक
कुछ न था
टाइमलाइन उत्तरी अक्षांश पर
बहती शुष्क नदी थी
जिसमें जीवन सदैव संदिग्ध और गुह्य रहा था
तुम्हारे साथ कुछ रिश्ते
इस तरह से टैग हुए कि
उन्हें अनटैग करने की कमांड
विकसित न हो सकी
उनका ऐसे बेतरतीब टंगे रहना
इसलिए भी ज्यादती भरा था
क्योंकि
तुम्हारी कोई दिलचस्पी अपडेट रहने में नही थी
तुम दुनिया से उकता कर
यहाँ आई थी
मगर यहाँ भी वक्त के मारें, खुद से भागते
रिक्त लोगो की पूरी जमात थी
तुम्हारा इनबॉक्स इस बात का
सच्चा गवाह हो सकता है कि
प्यार की अभिलाषा में
दोस्ती ही हथियार बनती है
तुम्हारे द्वारा पोस्ट की गई हर स्माइली का
एक दार्शनिक अर्थ था
जिसको समझने के अकाउंट
डिएक्टिवेट करना पड़ता था
लाइक,कमेन्ट,शेयर,टैग और फॉलो
की भीड़ में तुम्हें तलाशने के लिए
यथार्थ का चश्मा लगा विदूषक
बनना एक अनिवार्य शर्त थी
तब शायद तुम्हारी हंसी फूटती
जो जम गई थी ग्लेशियर सी
यहाँ फेसबुक को अवसाद की ईएमआई
पर एक्सेस करने की सुविधा  थी
यह बात तुम्हें भी ज्ञात न होगी
कुछ प्रोफाइल और पेज़ के
इस अज्ञात दर्शन में तुम्हारा मिलना
किसी तिलिस्म से कम न था
तुम्हारी दुनिया की पड़ताल करते हुए
पाताल से ब्रह्मांड तक की यात्रा की जा सकती थी
बदलती प्रोफाइल तस्वीरों
और नूतन स्टेट्स के मध्य
तुम्हारी एक समानांतर दुनिया थी
जहां तुम कभी खुद पर हंसती थी
कभी फेसबुकिया मित्रों पर
तुम्हें समझना आसान था
मगर जटिलता के आकर्षण ने
तुम्हारे विश्लेषण में लगा दिया
अब तुम्हें न समझा जाता है
और न जीया ही जाता है
ठीक इस फेसबुक की तरह।

© अजीत



Monday, August 25, 2014

दस: और बस !

दस: .....और बस !
------------------------------

बीमार तन
भटकता मन
तुम्हें शिद्दत से याद करता है
तुम मतलबी ठीक कहती हो
मुझे।
**********
मेरे तुम्हारे बीच में
संदेह का जंगल है
विश्वास की नदी है
नगें पाँव आ सको तो
आ जाओ।
************

तुम्हें सोचते अक्सर
ये ख्याल आता है
जब मिलना ही था
तो इतनी देर से
क्यों मिली
शायद अधूरेपन की
कोई सिद्ध प्रमेय हो तुम।

************
तुम हंसती हो तो
तारे सूरज से बगावत कर बैठते है
तुम्हे हंसते हुए देखना
दिन में तारे देखने
जैसा है।
*************
मेरे माथे की रेखाएं
तुम्हारी हथेली तक फ़ैली है
गौर से देखना कभी
ये कुछ आड़ी तिरछी पगडंडियाँ है
कमबख्त ! इनमें से
एक भी तो तेरे घर तक नही जाती।

***********
मेरे तुम्हारे नाम में
कोई दशमलव
क्यों नही आता
इसी बहाने
पूरे हो सकते थे हम।
*************
कल चाँद उदास था
वजह पूछी तो कहने लगा
इन दिनों तुम
आईना देखने लगी हो
बहुत
मै हंस पड़ा
अब चाँद मुझसे भी नाराज़ है।
************
कल तुम्हारे
तकिए ने शिकायत की
वो सूखा है कई दिनों से
झूठा ही सही
याद करके रो लिया करों
कभी-कभी।
*************
तुम्हारी लिखावट
तुम्हारे स्पर्शो जितनी
साफ़ और घनी है
तुम्हारे खत
इसलिए नही जला पाया
आज तक।
****************
तुम्हारे आंसू
मीठे है
आचमन के जल से
तुम्हारी प्रार्थना काफी है
यकीन करने के लिए
कि ईश्वर है
यह बात एक नास्तिक कह रहा है।

© अजीत

Sunday, August 24, 2014

सात इतवार: कुछ यादें कुछ बातें



जैसे थका हारा परिंदा लौट आता है
लौट आऊंगा मै भी
एक दिन
इंतजार मत करना।

-----------------------------

सपनों के पीछे भागने से
बेहतर है तुम्हे देखना
तुम्हें देखते हुए ख्याल आता है
बेहतर जिन्दगी का।

-----------------

तुम्हारी गोद
ब्रह्मांड के हाशिए पर थी
इसलिए वक्त लगा
अंतिम सांस उसमे लेते हुए।

-----------------------------------

तुम्हारे स्पर्श
इतने कलात्मक थे कि
मेरी पीठ आज तक
रंगी हुई है/टंगी हुई है
रंगशाला में।

--------------------------------
तुम्हारी चुप्पी
मेरे मौन से गहरी थी
तुम सिद्ध हो गई
और मै गृहस्थ।
---------------------------
दस साल का फांसला
दूर करता है तुम्हें
अक्ल, उम्र और सड़क
कभी कितनी लम्बी हो जाती है
और हम छोटे।
-----------------------------
तुम्हारा काजल
बूढ़ी गुफा है
मुस्कुराती हो तो
अंदर रोशनी आती है
मै देखता हूँ अंदर खुद को
नंगे पाँव।
---------------------------------

© अजीत

Saturday, August 23, 2014

साथ

मै परवाह कर रहा था उन दरख्तों की
जो झुंड में अकेले पड़ गए थे
पतझड़ में हरे रहने की कीमत उन्होंने
दरख्तों की बेरुखी से चुकाई थी
उनके तने खुरदरे नही थे
मगर शाखाएं इस कदर उलझी हुई थी कि
उन दरख्तों की पत्ते अपना आकर्षण खो बैठे
उन दरख्तों की छाँव घनी थी
मगर लू को ठंडा करने में वो असमर्थ थी
ये दरख्त किसी ने लगाए नही थे
निष्प्रयोज्य समझे गए बीजों की जिद की
उपज थे ये तन्हा दरख्त
दरख्तों के बड़े समूहों ने
उन्हें हमेशा अवैध ही समझा जबकि
उनका कद उनसे बड़ा था
इस परवाह में एक कौतुहल छिपा था कि
आखिर बहिष्कार का दर्द झेलते हुए भी
इन दरख्तों को कभी शिकायत करते नही देखा
बड़े चक्रवातों में इन दरख्तों को
झुकते देखा मगर उखड़ते नही
इन दरख्तों की परवाह में
समझदारी का पाठ भी था
जिसे मै रोज पढ़ रहा था
जंगल के मनोविज्ञान में
इन दरख्तों की दोस्ती ने मुझे
एकांत के जंगल में उन तन्हा वनस्पतियों से भी मिलवाया
जिनका वैज्ञानिक नाम
वनस्पतिविज्ञानी भी नही खोज पाए थे
आज भी मेरी जेब में मिल सकते है उनके कोमल तने
उनका साथ होना
लगभग ऐसा अहसास देता कि
कोई सतत साथ है फ़िक्र के साथ
दरअसल सच तो यह है कि
परवाह और देखभाल करना
मै इन तन्हा दरख्तों से सीख पाया।

© अजीत

हद

खुद को इस तरह से सजा देता हूँ
लिखता हूँ लिखकर मिटा देता हूँ

बुलंदी से तकलीफ तुम्हें होती है
समन्दर में घर अपना बना लेता हूँ

तेरी महफिल तेरा साकी तेरी अना
यही बहुत है जाम अपना उठा लेता हूँ

सियासी रसूखों के किस्से हमें न बता
ऐसे ताल्लुक मै फूंक से उड़ा देता हूँ

बड़ी तेजी से करीब तुम आ गए हो
चलो तुम्हें तुम्हारी हद बता देता हूँ

© अजीत

Sunday, August 17, 2014

फिलहाल

सुनों !
इश्क में हमेशा संजीदा रहा नही जाता
थोड़ी शरारत ताल्लुक की आँख में
काजल लगाती है
मुहब्बत वो मदरसा है
जहां की तालीम उम्र भर
काम आती है
निगाहों में पलती कुछ अधूरी अंगडाईयां
लबो पर सिसकते कुछ दफन अल्फाज़
तेरी खामोशी के सजायाफ्त कैदी है
वक्त की चादर पर तेरी ख्वाबो की तुरपाई
हकीकत से आगे की कसीदाकारी है
तेरे हाथ के उन दोनो क्रोशियों की
गवाही ली जाएगी
जो चुपचाप गुनगुनाए इश्क के नगमों के
सच्चे गवाह है
कान की बालियों को भी जवाब तलब किया जाएगा
जब बैचेन करवटों का हिसाब लिखा जाएगा
चाँद और चरागों की शक्ल देख
उनके सफर और हवा की गुस्ताखी को
तामील किया जाएगा
अपनी धडकनों में भटकतें
तीसरे सुर पर तुम्हें रागिनी छेड़नी होगी
तभी ये रिश्ता सरगम सा बजेगा
ये तय है वो मुकम्मल दिन
जरुर आएगा
बस तब तक दुआ करों मेरा हौसला
और तुम्हारा सब्र कायम रहें
तुम्हारी उदासी पर इससे बड़ी दिलासा
फ़िलहाल
मेरे पास नही है।

© अजीत 

Friday, August 15, 2014

क्या तुम अब भी...

क्या तुम अब भी
दस्तखत के नीचे आधी लाइन खींच
दो उदास बिन्दू लगाती हो
क्या तुम अब भी
काजल लगाते समय
खंजन नयन डबडबाती हो
क्या तुम अब भी
अपने बटुए में
चिल्लर भूल जाती हो
क्या तुम अब भी
अपने स्लीपर
मोची से छिपकर सिलवाती हो
क्या तुम अब भी
अपनी हेयरपिन बिस्तर पर
भूल जाती हो
क्या तुम अब भी
किताबों में फुटनोट लगाती हो
क्या तुम अब भी
बेवजह उदास हो जाती हो
क्या तुम अब भी
चाय के प्याली पर
नजरें चुराती हो
ये कुछ सवाल थे
जो पूछने थे तुमसे मिलने पर
मगर तुमसे मिलने पर
एक ही बात पूछ पाया
'कैसी हो तुम'
तुम्हारे एक जवाब ने
इन सब सवालों का जवाब दे दिया
तभी मैंने ये जाना
कि खुश दिखने की कीमत
सच में खुश रहने से बड़ी होती है
आदतें ऐसे बदल जाती है
जैसे बरसात में अचानक
बदल जाता है मौसम
जैसे अचानक हुई मुलाक़ात में
बिलकुल बदल जाते है हम।

© अजीत

Wednesday, August 13, 2014

गजल

मंजिल ऐसी किसी को हासिल न हो
दोस्त से मिलने का भी जो दिल न हो

कस्ती मेरी सैलाब में तन्हा लड़ती है
तमाशबीन कभी ऐसा साहिल न हो

बेवजह तुम दुश्मनों पर शक करते हो
देखना दोस्त साजिश में शामिल न हो

इस मयकदें में नशा होता है बहुत
साकी मेरा कहीं कोई कातिल न हो

गुंजाईश बचा कर रखना थोड़ी सी
मुमकिन है इश्क में वो काबिल न हो

© अजीत









नही जाता

गम जब्त करता हूँ बताने नही जाता
बीमार कितना हूँ दवाखाने नही जाता

लोबान जब से खतम हुआ इल्म का
दर पर मैं अलख जगाने नही जाता

सादामिजाज़ी का यहाँ मतलब खाली है
मशरूफ हूँ कितना ये बताने नही जाता

मगरूर जमाने की हकीकत जानी जबसे
शराबी को कभी मै समझाने नही जाता

कुछ दोस्त मुझसे यूं भी खफा है
मुसीबत में उन्हें बुलाने नही जाता

© अजीत




मझधार

कविताएँ उतरोत्तर
अपने पाठक खोती गई
और गज़लें शामीन
कहानी लिख न सका
अलोचना से खुद घिर गया
गद्य-पद्य सौतेले भाई निकले
विचार और सम्वेदना
उथल गई साहिल पर
उसने बिन पतवार की
नाव  खोली
और उसमें लेट दोनों हाथों से
पतवार का काम लेता
आसमान से देख बुदबुदाता
दरिया के बीच चला आया
उसे नींद आ रही थी
कविता ने तुला दान किया
प्रज्ञा ने महामृत्युंजय मन्त्र पढ़ा
और उसने अपने पाठकों से
माफी मांग
मृत्यु को जीवन का महाकाव्य कहा
एक नगमें की मौत पर
नदी आज भी रोती है
उसके लिए
मगर उसके आंसु
कौन देख पाता है
वो बूढ़ी नाव आज भी
यदा कदा नदी में दिख जाती है
उसे अफ़सोस  है
किसी को मझधार में
छोड़ने का।

© अजीत


Tuesday, August 12, 2014

सजा


वो स्व निर्वासन पर था
ईश्वर ने उसे बाध्य किया था
युद्धों की रपट भेजने के लिए
षड्यंत्रो की मुखबरी करने के लिए
शान्ति के असफल प्रयासों के लिए
भूख और खुशी का सूचकांक
उसे एक परचे पर लिख भेजना था
उसे मनुष्य के अधोपतन की
निष्पक्ष समीक्षा लिखनी थी
मनुष्य के तटस्थ होने के कौशल की वजह जाननी थी
उसे धर्म के आतंक के किस्सों से
ईश्वर के लिए रूपक लिखना था
ताकि भरी सभा अट्टाहस से हंस सके
उसे ईश्वर को एक अनुमान भेजना था
मौसम की तरह
मगर उसके पास उपग्रह से प्राप्त चित्र नही थे
धरती का एक हिस्सा बेहद गर्म था
एक बेहद ठंडा
वो बिना रीढ़ के गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ लड़ रहा था
उस पर ईश्वर का दबाव था
तैर कर दुनिया देखने के लिए
वो कवि वैज्ञानिक ज्योतिषी
सबसे मिलकर जानना चाहता था इस ग्रह का भविष्य
ताकि उसकी रपट ईश्वर का विश्वास जीत सके
और उसके जीने की सजा विस्तार पाती रहे
वो ईश्वर का सजायाफ्ता कैदी था
जिसे बुद्धिमान मनुष्य
कहा जाता था इस ग्रह पर
जिसका नाम पृथ्वी है।

© अजीत

Monday, August 11, 2014

मशविरा

अल्फाज़ धूल से बिखरे हुए थे
जब तुमने मुहब्बत में तंज किया
और रंज करते हुए कहा
मुझे तुम्हारी फ़िक्र नही
फ़िक्र दरअसल अंग्रेजी चश्मा है
विलायत जैसा झूठा
इसके बाहर एक सख्त दुनिया है हकीकत की
तुम सहर की अजान की तरह बेपरवाह हो
ये अलग बात है तुम्हारी इबादत
मेरे हिस्से में आयी है
तुम्हारे मलाल को रफू करते करते
मेरी अंगुली जख्मी हो गई है
मेरी आस्तीन पर तुमने जो
भरोसे का बटन लगाया था
वो आधा लटका हुआ है टूटकर
इसी डर से कमीज धोई नही मुद्दत से
मेरी फ़िक्र तुम्हे वक्त के इस स्याह चश्में
में शायद ही दिखाई देगी
खुद की जिन्दगी में हाशिए पर पड़ा
तुम्हे रोज़ जमा-नफ़ी करता हूँ
हासिल सिफर आने पर डरता हूँ
मेरे चेहरें पर ये जो किस्तों में पुती हंसी है
दरअसल ये तुम्हारी हसीन यादों का सूद है
जिसके सहारे मै
तमाशबीनों का मजमा लगाए बैठा हूँ
दुनिया मुझे मदारी समझती है
और तुम मतलबी
रंज ओ' मलाल से गर मिले फुरसत
तो देखना शाम के अँधेरे में
कोई भटका हुआ परिंदा
कोई पुराना खत
शायद मेरा सही पता मिल जाए
इल्म की यह आख़िरी कोशिस
तुम्हें एक बार जरुर करनी चाहिए
यह मशविरा है मेरा
मानों न मानों
तुम्हारी मर्जी।

© अजीत

Sunday, August 10, 2014

अफवाह

सुनों !
निर्वासन पर तुम्हारी याद
साथ लेकर जा रहा हूँ
मुठ्ठी भर तकरीरे भी है
एक पुडिया नसीहत की है
चंद सवाल चंद खतूत है
सर्दियों की धूप में
भूपेन दा को गुनगुनाते
जो स्वेटर तुमने बुना था
वो सलाइयों समेत रख लिया है
स्वेटर में खुशबू है तुम्हारें मोंगरे की
जब मन होगा
सलाइयों से तुम्हारा नाम
गीली मिट्टी पर लिखा करूंगा
इस निर्वासन में मुमकिन है
तुम्हें खत न लिख सकूं
न भेज सकूं वादों के मनीआर्डर
तुम्हारे शिकवें चाँद पर
पढ़ा करूंगा
तुम्हारे अक्स डूबते सूरज में देखा करूंगा
कुछ रास्तों की धूल वापस तुम तक
लौट जाने की जिद करेगी
रात और दिन लम्बें हो जाएंगे
इस अज्ञातवास पर
कुछ तुम्हारे सामान
बिन इजाजत के रख लिए है जिसमें
तुम्हारा कॉटन का दुपट्टा भी इसमें शामिल है
जो तपते चेहरे की मार्फत मन को छाँव देगा
तुम्हारे पास मेरी खताओं का शाल है
जब मुझे भूलना चाहों
उसे ओढ़ लेना
राहत मिलेगी सर्द यादों से
मुमकिन है हमें अब एक दुसरे के खबर न मिलें
मगर
दोनों के पास के पास
कुछ सामान जरुर ऐसा मिलेगा
जिससे हमारे करीबी होने की
अफवाह फ़ैल सकती है जमाने में
इस निर्वासन पर
पहचाने जाने से बड़ी
फ़िक्र इसी बात की है
हो सके तो सम्भाल लेना खुद को।

© अजीत





सात कतरनें वाया फेसबुक

सात कतरनें वाया फेसबुक

(एक)
तुमने सच को कल्पना के यहाँ
गिरवी रख मुझसे कुछ सपने उधार लिए थे
उसके बाद से
मै कर्जमंद हो गया हूँ
और तुम  साहूकार
कभी मिलने आओं
तो लेते आना किसी एक सपना उधार
मेरे लिए
ताकि मै भी कुछ दिन
जी सकूं बेफिक्र
तुम्हारी तरह।
---------------------------------------
(दो)
तुम रात भर सोती हो बेफिक्र
मै तुम्हे देखता हूँ रातभर
दिन भर जो मेरी आवारगर्दी,बेफिक्री और बेख्याली हैं
वो उसी की जमानत पर मिली है
तुम्हें इसकी खबर
मै कभी लगने नही दूंगा
वरना तुम्हें मेरी फ़िक्र होने लगेगी।

--------------------------------------------
(तीन)
कल रात चाँद मेरे कान में
फूंक मारी मै जाग गया
उसने बडी उदासी से कहा
कुछ दिन धरती पर रहने का जी है उसका
इसलिए तुम अपना चाँद
उधार दे दों मुझे
तब से चाँद से बोलचाल बंद है
तुम्हें पता भी है।

---------------------------------------------
(चार)

मेरे आंसूओं ने कल शिकायत करते हुए कहा
हमें आँखों से बाहर का रास्ता नही दिख रहा है
हम अंधे हो गए है
आँखों का तालाब सड़ गया है
हमें बहने के लिए रास्ता दों
मै जोर से बिन बात के ही
हंस पड़ा
और देर तक हंसता रहा
यही एक ईलाज़ था मेरे पास।
-----------------------------------------------
(पांच)
एक सुबह तुम चाय बनाने गई
फिर लौट कर नही आई
मै इतंजार करता रहा
आज भी करता हूँ
सबके हाथ में प्याली है चाय की
और तुम्हें तलाशता हूँ कप के बाहर
तुम्हारा स्पर्श आज भी बासी नही हुआ है
तुम सबके लिए चाय बनाती हो
मेरे लिए नही
ऐसी भी भला क्या दुश्मनी।

----------------------------------------------
(छह)
तुम्हें शिकायत है मै कम बोलता हूँ
मिलनसार नही हूँ
मुझे शिकायत तुम हर बात सुनना चाहती
समझने के बाद भी
चलो एक काम करते है
शिकायतों की शादी करवा देते है आपस में
फिर हम दोनों बुजुर्ग हो जाएंगे
और एक दूसरे के पूरक भी।

-------------------------------------------------
(सात)

सुनो !
कल तुमनें मुझे देखकर अनदेखा किया
मुझे अच्छा नही लगा
मगर मै ऐसा नही करूंगा
क्योंकि तुम्हें विश्वास नही होगा
तुम्हारे अंदर यह विश्वास बचाकर रखना
मेरी जिम्मेदारी है।

© अजीत

Friday, August 8, 2014

एफ बी दर्शन

फेसबुक को मतलबी चश्में से देखने पर
यह सच के ज्यादा करीब दिखती है
सम्बन्धों को साधने का गणित
आंतरिक रिक्तताओं का मनोविज्ञान
खुद से भागने का दर्शन
जुड़ने का काव्य
बिछड़ने का गद्य
जाति वर्ण धर्म का समाजशास्त्र
खुद को प्रोजेक्ट करने की यांत्रिकी
आत्म मुग्धता का कुशल प्रबन्धन
मानव व्यवहार की जटिल गतिकी
इन सब का अध्ययन
फेसबुक पर किया जा सकता है
लिखे जा सकते है शोध पत्र
इसकी विषय वस्तु के इतने उप विषय है
कि कुछ नए विषय प्रकाशित किए जा सकते है
चेहरे इतने गूथे हुए है आपस में कि
भावुक और व्यवहारिक
चालाक और भोला
चिंतक और प्रचारक
क्रांतिकारी और सुविधावादी में
भेद करना बेहद मुश्किल काम है
यहाँ पर लोग क्या तो चालाक नियोजन युक्त
समीकरणों से बंधे है
या फिर खुद की तलाश में भटक रहें है
एक वर्ग महज़ होने के लिए यहाँ है
उसकी दिलचस्पी
न ज्ञान में है
न शिल्प में
न सम्वेदना में
उसके अपने एजेंडे है यहाँ होने के
कुल मिलाकर यह एक दिलचस्प अड्डा है
जहां रोज कोई न कोई
आप चौका देता है
हंसा देता है या फिर रुला भी देता है
तकनीकी के इस दौर में
फेसबुक एक ऐसा आभासी रंगमंच है
जहां रोज नए नए पाठ मिलते है
हम ढोतें है अपने अपने किरदार
मोबाइल स्क्रीन और कंप्यूटर इस दौर की
आधुनिक नाट्यशालाएं है
जिसमें चल रहे होते है
असंख्य नाटक हर रोज़
फेसबुक के मालिक को भी अंदाजा नही होगा कि
एक उप महाद्वीप के लोग
जिनका दावा आध्यात्म में विश्व गुरु होने का रहा है
इतने अस्त व्यस्त त्रस्त होंगे
कि हाथों हाथ लेंगे इस आभासी विचार को
और सौप देंगे इसे
अपना एकांत
सपना और निजता
खुशी के सेंसेक्स में शामिल हो जाएगी फेसबुक
जिसकी कीमत
कभी अवसाद की इक्विटी तय करेगी
तो कभी सहमति की कमोडिटी
बड़े संदर्भो में  देखा जाए तो
यह एक अच्छा प्रयोग है
मनुष्य की अभीप्साओं को
परखने का इसलिए कुछ विरक्त लोग भी
फेसबुक पर चिमटा और मंजीरा बजा रहें है
उनके लिए यह जगह
किसी दरगाह से कम नही
यह सब फेसबुक के बारें में
अनुमान है
ठीक ठीक बता पाना
सम्भव नही किसी के लिए भी
यही इस माध्यम की
सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है
यह और इस पर जुड़े लोग
जितने ज्ञात है वो उतने ही
अज्ञात भी है।


© अजीत

( गद्य-पद्य से परे एक निठल्ला नोट)

Thursday, August 7, 2014

तथास्तु

रिस रही थी एक कविता
मन की छत से धीरे-धीरे
रेंग रहा था एक रिश्ता
थकावट के साथ
बदल रही थी जिन्दगी
सूरजमुखी की तरह
रीत रहा था मन
पल -पल प्रतिपल
अंतस में पसरा एकांत
मन के निर्वात में घुल गया था
निराशा की बारात
मौन की डोली
शिकवों का दहेज साथ लाई थी
फिर तुम मिले
मिलकर बिछड़े
इस छोटे अन्तराल में
लिखे गए महाकाव्य और भाष्य
भले ही तुम्हारे अपने स्वार्थ थे
मगर तुम निमित्त बने
एक रिसती रीतती जिन्दगी के
क्षणिक उपयोग के
इसलिए तुम्हारा दर्जा हमेशा ऊंचा रहेगा
इस अस्तित्व के अधोपतन के बाद भी
तुम्हारे वाक् रसायन ने
ऊर्जा के स्रोत विकसित किए
जिनके सहारे यात्रा कर
लिखे पढ़े के ब्याज़ पर
ईश्वर से  कम क्रुरता से पेश आने की
अर्जी लगाई जा सकती है
मृत्यु उपरान्त ईश्वर की उदारता से
यदि ध्यानस्थ जगह मिल पाई
तो उसके सबसे बड़े निमित्त तुम होंगे
इसी बिनाह पर
तुम्हारी चालाकियों को क्षमा किया जा सकता है
तुम्हारे प्रपंचो पर हंसा जा सकता है
तुम्हें जिज्ञासु और सवाली देख
ईश्वर की भांति मुद्रा बना
कहा जा सकता है
'तथास्तु' ।

© अजीत

ईश्वर

लिखी जा रही थी जिसके लिए कविता
वो बहस को अपने कंधो पर बढ़ा रही थी
लिखा जा रहा था जिसके लिए विचार
वो प्रेम कविता पढ़ रही थी
बनाई जा रही था जिसके लिए नूतन धुन
वो पसीना बहा रही थी खेल के मैदान में
जिसके लिए योग सूत्र खोजे गए
वो कीर्तन में रत थी ईश्वर को मनाने के लिए
जिसके लिए दर्शन का अनुशीलन किया
वो विश्वास की नदी बन गई थी
ज्ञान विवेक दर्शन प्रज्ञा जिसके लिए ओढ़े गए
वो हंस रही थी पागलों जैसी उन्मुक्त हंसी
मनमुताबिक़ न मिलने का दौर था वह
लगभग सभी लोग गलत पेशे में थे
उनकी अनिच्छाएं उनके चेहरों पर पुती थी
लोग और उनकी दुनिया
हर ढाई घंटे में बदल रही थी
वो विस्मय से हांफता और
अपनी नादानी से काँपता
एक पैर से चल रहा टेढ़ा-मेढ़ा
तभी किसी ने तेज धक्का दिया
और उसने खुद को समय के पार पाया
जहां से वो देख सकता था
लंगड़ाती दुनिया और लड़खड़ाते लोग
वो केवल देख सकता था
हस्तक्षेप उसके अधिकार क्षेत्र से
परे का विषय था
वो मनुष्य का दैवीय संस्करण था
जिसे वक्त के धक्के ने गढ़ा था
वो पत्थर जैसा अमूर्त था
उम्मीद तलाशते लोगो का
आशा का केंद्र बना
एक मजबूर इंसान था वो
जिसे गलती से
भगवान समझ लिया गया था।

© अजीत

Tuesday, August 5, 2014

ज्ञान

नेह के निमन्त्रण
अनौपचारिक थकावट भी साथ लाते थे
आग्रह संकोच की चासनी में लिपटे होते थे
यह सायास किसी के स्थापित जीवन में
दखल का एक नीरस प्रयास जैसा था
हर संदेश कौतुक में बदल जाता था
और सम्वाद कौतुहल में
भीड़ का हिस्सा बनकर
भीड़ से अलग दिखने की कवायद में
शब्दों का तसला उठाते हुए कमर दर्द
जीवन का अभ्यास बन जाता था
संकल्पों की धूरी पर
विकल्पों का चाक बड़ी तेजी से घूमता था
उसकी गति और लय बेमेल थी
वो अधूरे पात्र बनाता था
इस दर से उस दर
दस्तक देते उसके कदम अकड़ गए
मन थक कर चूर हो गया
लोगबाग अपने होने के जश्न में मशगूल थे
बावजूद सबके अपने डर संदेह और शंकाएं थी
बिना किसी को खबर दिए
वो चुपचाप अपना अस्तित्व समेट
दूर निकल गया
इस आवाजाही से किसी को
कोई खास फर्क नही पड़ा
सब कुछ यथावत चला उस दुनिया में
क्योंकि वहां चेहरे बदलते रहे
लोग नही
आभास यथार्थ से विचित्र
कल्पना से खतरनाक और
सच से बदरंग हो सकता है
ये उसने निर्वासित होकर जाना।

© अजीत




Monday, August 4, 2014

गणित

तुम्हारे समानांतर चलते हुए यह जाना
जीवन दर्शन के इतर भी बिखरा होता है
छोटी छोटी खुशियों में
छोटे -छोटे रंज और मलाल में
जरूरी नही हर बात पर
बुद्धि की राय ली जाए
दिल से सोचना तुम्हारे सत्संग से सीख पाया
तुम्हारे सापेक्ष चलते हुए यह जाना
अकेला होना मृत्यु से भी बड़ा सच है
आसक्ति एक युक्ति भर है व्यस्त दिखने की
शिखर का एकांत घाटी से पलायन है
तुम हंसती हो तो
मन की गिरह खुलती जाती है
तुम मुस्कुराती हो तो
अज्ञानता का अभिमान होने लगता है
तुम्हारी आँखों के ज्वार भाटे
लापरवाह नही है इसलिए तुम्हें कभी रोते नही देखा
तुम्हारा धैर्य पहाड़ का छोटा भाई है
तुम्हें शिकायत करते नही सुना कभी
तुम्हारे मन की सतह पर अनुराग की काई है
यह फिसलकर भी जाना नही जा सकता है
तुम्हें समझना खुद की समझ पर सतत प्रश्नचिन्ह
लगाए रखने जैसा है
इसलिए तुम्हें सिर्फ जिया जा सकता है
अपने अधूरेपन के साथ
पूर्णता के बाद पारस्परिक रुचियाँ अर्थ खो देती है
इसलिए तुमसे मिलने के लिए
जीवनपर्यन्त अधूरा ही रहना होगा
यह तुम्हारी एकमात्र लौकिक शर्त है
जिसे स्वीकार कर
देह से इतर जीने का कौशल सिखा जा सकता है
हर लिहाज़ से
यह बहुत छोटी कीमत है
बशर्ते
जीवन को गणित न समझा पाए
और मनुष्य को साधन।
© अजीत


Sunday, August 3, 2014

नादां

इरादतन नही मगर दिल दुखाया तो है
आदतन तुमने ये जख्म छिपाया तो है

दुनिया के लिए लाख बुरा हूँ  मै
रोते हुए अक्सर तुझे हंसाया तो है

अदब ने तुझे समझदार बना दिया
ऐब ने हमें भी फन सिखाया तो है

नादान उसकी फकीरी पर तंज न कर
शोहरत को उसने फूंक से उड़ाया तो है

दोपहर से तन्हाई मेरी महक रही है
दुपट्टा अश्कों का कहीं सुखाया तो है

© अजीत







शिकार

मैने कहा
लिखना छोड़ रहा हूँ
उसने सुना
जीना छोड़ रहा हूँ
मैंने कहा
जीना छोड़ रहा हूँ
उसने सुना
लिखना छोड़ रहा हूँ
मै जो भी कहता
वो उसके उलट सुनती
एकदिन मैंने कहा
प्यार है तुमसे
हंसते हुए बोली
तुमसे न होगा
प्यार करने के लिए
खुद से नफरत जरूरी है
तुम खुद से प्यार करते हो
इसलिए
न तुम मरोगे
न लिखना छोड़ेगे
और किसी से प्यार कर सकोगे
उसके बुद्ध ज्ञान ने
तथागत बना दिया
और मैंने चुस्त बातें कहने
का हुनर सीख लिया है
अब हर बात प्रायोजित और सधी होती है
शिकार करती है
लौट आती है
शब्दों के तरकश में।

© अजीत

वक्त

यह सच है
समय एक सा नही रहता
सच तो यह भी है
हम भी बदलते रहते है
साथ साथ हमारा सच भी
करवटें बदलता है
वक्त छोड़ जाता है
कुछ सवाल कुछ खरोंचे
जिनका जवाब और मरहम मिलता नही
हम उन्हें हरा रखना चाहते है सायास
ताकि उनकी टीस
याद दिलाती रहें बुरे वक़्त में
हासिल हुई लोगो की समझदारी
वक्त के षड्यंत्र इतने गुह्य और सघन होते है
उनमें फंसते देखा जा सकता है
रक्त सम्बन्धी से लेकर यार-दोस्त परिचित सबको
बेहद निराशा के दौर में
वक्त के बदलने की फितरत से बड़ा
कोई सहारा नही होता
गर वक्त स्थिर हुआ करता तो
सुख और दुःख दोनों
अप्रासंगिक हो जाते
और मनुष्य पागल
इंसान कोई बुरा नही होता
बस बुरे होते है हालात
जिसमे कोई कमजोर पड़ता है
बदलता,पलटता,बिफरता है
इस बदलने की प्रक्रिया का
सबसे दुखद पहलू बस यही है
जो हमें जहां छोडकर आगे बढ़ता है
एक दिन हमें उसी जगह तलाशने आता है
मगर अफ़सोस
तब तक हम अपना स्थान बदल चुके होते है
वो सिरा भी ताउम्र नही मिलता
जो किसी वजह से हमनें छोड़ दिया होता
लापरवाही से
अधूरेपन में जीना
इसी लापरवाही की सजा होती है
जिसे हम भोग रहें होते है
अपनी-अपनी जिंदगियों में।

© अजीत 

Friday, August 1, 2014

आभार

तुम्हारे तिरस्कार ने
मृत अह्म को पुनर्जीवित किया
तुम्हारी घृणा ने
अंतरनिरिक्षण के लिए प्रेरित किया
तुम्हारे संदेह ने
सच को दृढता से कहने की हिम्मत दी
तुम्हारे आरोपों ने
तर्क शक्ति को मजबूत किया
तुम्हारे झूठ ने
झूठ से लड़ना और सच के लिए अडना सिखाया
तुम्हारे मिथ्याभिमान ने
अस्तित्व की लघुता का बोध कराया
तुम्हारे चटखारे युक्त षड्यंत्रो ने
निर्लिप्त रहना सिखाया
तुम्हारे क्रुर सवालों ने
अंदर का लिजलिजापन मिटाया
तुम्हारे बाह्य आकर्षण ने
आत्मकेंद्रित होने का अवसर दिया
तुम्हारी जिद ने
अड़ने की कमजोरी का पता दिया
तुम्हारे विकल्पों ने
संकल्प का मूल्य बताया
तुम्हे शायद ही कभी पता चलेगा
तुम्हारे बेहद सतही प्रयोगों ने
एक सांसारिक व्यक्ति को
जो विश्वास को पूंजी समझता था
प्रेम को अनुरक्ति
और दुनिया को भोली
उसको तुमने
लगभग चलता फिरता सिद्ध बना दिया है
आभार और कृतज्ञता छोटे शब्द है
तुम्हारे प्रतिदान के लिए
प्रेम,मैत्री और अनुराग की
ऐसी दुर्लभ परिणिती के लिए
हृदय की गहराइयों से
तुम्हारा आभार बनता है
अस्वीकृति की अपनी आदत में
इसे खुले दिल से स्वीकार करों
यह तुम्हारी विजय का प्रतीक है
इसे अपनी हार मत समझना
यही अंतिम अनुरोध है।

© अजीत