Sunday, May 31, 2015

ब्रेक अप

ब्रेक अप : कुछ फुटकर नोट्स
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ब्रेक अप
एक अंग्रेजी शब्द था
मगर इसके प्रभाव थे
विशुद्ध देशी किस्म के
यह जुड़कर टूटने की
बात करता था
शब्दकोश में देखा
इसके आगे पीछे कोई शब्द नही था
ये वहां उतना ही नितांत अकेला था
जितना अकेला
एक एसएमएस के बाद मैं हो गया था।
***
ब्रेक अप के बाद
शब्दों के षड्यंत्र
आकार लेना आरम्भ करते
प्रेम को निगल जाता सन्देह
स्मृतियों को चाट जाती युक्तियां
स्पर्शों को भूल जाती देह
अह्म होता शिखर पर
दिल अकेला हंसता
दिमाग की चालाकियों पर
यही हंसी दिख जाती कभी कभी
आंसूओं की शक्ल में।
***
ब्रेक अप के बाद
मैंने छोड़ दिया पृथ्वी ग्रह
मैं निकल आया प्लूटो की तरफ
मगर वहां के चरम एकांत में भी
ब्रेक अप की ध्वनि
मेरा दिशा भरम करती रही
दरअसल वो ध्वनि नही
एक किस्म का शोर था
शोर ब्रह्माण्ड के हर कोने तक
करता रहा मेरा पीछा
जबतक मैं बहरा न हो गया।
***
ब्रेक अप
सवाल की शक्ल में आया
जवाब की शक्ल में चला गया
सवाल-जवाब के मध्य
रूपांतरित होता हुआ रिश्ता
समुंद्र तल की ऊंचाई से कुछ मीटर
ऊपर का था
जब एक दिन पानी पर
तुम्हारा नाम लिखना चाहा
तब पता चला
कुछ सेंटीमीटर
तुम्हारा तल बदल चुका है
ब्रेक अप एक तरल चीज थी ठोस नही।
***
ब्रेक अप
आसान नही होता
कहना भी करना भी और जीना भी
ब्रेकअप उतना मुश्किल भी नही होता
जितना मैं सोचता था
इधर ब्रेक अप हुआ
उधर मेरी जगह ले ली
किशोर कुमार लता मंगेशकर ने।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 30, 2015

तिराहा

पहली बार
तुम्हारे शहर के तिराहे से विदा हुआ
दोराहें और चौराहें से कितना अलग था
तिराहें से विदा होना
एक सड़क सीधी जा रही थी
शहर के आरपार
एक तुम्हारे घर की तरफ
मैं समकोण पर खड़ा
सोच रहा था किधर जाऊं
एक तरफ शहर था
एक तरफ तुम थी
और एक तरफ मैं
जिस तरफ मैं खड़ा था
वो दुनिया की सबसे निर्धन जगह थी
ये जाना तुम्हारे चले जाने के बाद।
***
तिराहें पर खड़ा होना
गुरुत्वाकर्षण खो देने जैसा था
टी पॉइंट से राईट हो रहे थे लोग
और मैं लेफ्ट की तरफ
तांक रहा था
मैंने लेफ्ट इसलिए चुना
तमाम अजनबीयत के बावजूद
लेफ्ट में पड़ा मेरा दिल
धड़क रहा था तुम्हें देखकर
उस वक्त मेरे जिन्दा होने की
यही एक मात्र पुष्टि थी।
***
तिराहे पर खड़े होकर
याद आ रहा था तुम्हारा गुस्सा
मैं गुस्से में था दुखी था अनमना था
नही जानता
गुस्से की आवाजाही में
मैं शहर के उस
सिविल इंजीनियर पर बेहद खफा था
जिसकी नगर योजना का
हिस्सा रहा था यह तिराहा।
***
देर तक खड़ा
यही सोचता रहा
आखिर जिंदगी में क्यों आतें हैं
दोराहें,तिराहें और चौराहें
जब अनमना हो
चुनना पड़ता है
एक रास्ता
दरअसल रास्तें हमें
कहीं नही ले जाते
रास्ते केवल छोड़ते है
दूसरे रास्तें के मुहानें पर
मंजिल इन्ही रास्तों के बीच फंसी
सबसे उदास जगह है।

© डॉ. अजीत

Wednesday, May 27, 2015

दूरी

मेरे तुम्हारे बीच में
महज फांसला नही है
कुछ ग्राम नम हवा भी है
हवा को विज्ञान कैसे तौलता है
नही जानता हूँ
मगर इतना जानता हूँ
हमारे बीच में
कुछ ऐसी महीन चीज़ जरूर है
जो हमें मिलनें नही देगी कभी।
***
देह का आकार
आकृति से बढ़कर नही होता
मन का कोई आकार ही नही होता
देह और मन के अलावा भी
कुछ अज्ञात है
जिसका अनावरण अभी शेष है
यही अज्ञात
हमें मिलनें नही देगा कभी।
***
क्यों न ऐसा करें
मिलाकर देखें
अपनी अपनी रेखाएं
ये समानांतर दिखती जरूर है
मगर है नही
शायद बन जाए कोई
मानचित्र
तुम खो जाओ इससे बेहतर है
इसकी मदद से
तुम्हारा निकल जाना।
***
तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद
बहुत कुछ बच गया है
अनसुलझा
स्थगित करना ही पड़ेगा
मंजिल का कौतुहल
सफर आसान होता जाता है
और तुम मुश्किल।

© डॉ. अजीत

Tuesday, May 26, 2015

मार्ग

तुम्हें देख
भूल जाता हूँ
निष्फल प्रेम का अतीत
तुम्हारी छाया टांगती है रोज़
धरती के माथे पर
एक इश्तेहार
जिस पर लिखा होता है
प्रेम का अतीत वर्तमान भविष्य नही होता
प्रेम का होता है केवल इतिहास।
***
तुम्हारी हथेली पर
रख देता हूँ कम्पास
तुम देखती हो मेरी दिशा
और गलत अनुमान से
भटक जाती हो
जबकि मैं खड़ा होता हूँ
ठीक तुम्हारे सामनें।
***
मैं पूछता हूँ
तुम्हारा पता
और तुम हंस पड़ती हो
पोस्ट करता हूँ
सब खत इसी पते पर
इस उम्मीद पर
तुम तक जरूर पहूंचते होंगे
वो सब के सब।
***
दुनिया के अंतिम
तटबन्ध पर
मेरी चप्पल मिलेगी
इससे आत्महत्या का अनुमान मत लगाना
मैं अनुमान से नही
तुम्हें निष्कर्ष के किनारे
खड़ा मिलूँगा
यदि तुम वहां तक पहूंच पाई।

© डॉ. अजीत

दिशा

अब जब मुझमें
तुम्हारी दिलचस्पी
लगभग नही के बराबर बची है
ठीक इस वक्त
देना चाहता हूँ
तुम्हें एक मुट्ठी नमक
ताकि तुम समझ सको
खारेपन का मूल्य
प्यास की अनुपस्थिति में।
***
अब जब लगभग सब कुछ
निर्णय के मुहाने पर
खड़ा है
मांगना चाहता हूँ
तुमसें तुम्हारी खुशबू
ताकि महकती रहें
कुछ खट्टी मिट्टी यादें
तुम्हारी छाया में।
***
हमनें कभी नही मांगा
प्रेम में प्रतिदान
न मांगने का एक अर्थ
यह भी निकाला जा सकता है
अंदर से खाली नही थे हम
प्रेम कहां बसता फिर?।
***
चारों दिशाओं के अलावा
धरती की होती है अपनी एक दिशा
उसी का भरम ले जाता है
हमें उस तरफ
जहां से लौट नही पाते
मर कर भी हम।

© डॉ. अजीत 

Wednesday, May 20, 2015

फलादेश

चांद मुंह नही फेर सकता
तारें आंख नही बंद कर सकते
धरती को तकना
ज्ञात मजबूरी है
मनुष्य सो सकता है
देख सकता है स्वप्न
लिख सकता है कविताऐं
तमाम अन्धकार के बीच
चाँद तारें इस बात पर खुश है।
***
नदी को किनारों से फुरसत नही
उसकी गहराई का एकांत
उदास रहता है अक्सर
पत्थर बचातें है
उसके जीवन में हास्य
वेग की शक्ल में।
***
हवा मुक्त दिखती है
मगर होती नही है
उसकी दिशा तय करता है कोई और
हवा की बेबसी
पूछिए किसी हिलते हुए पत्ते से
वो टूटकर बताना चाहता है सबकुछ
यदि आपको फुरसत हो तो।
***
ग्रहों नक्षत्रों के प्रभाव में मध्य
पृथ्वी होती है नितांत अकेली
झेलती है सबका सकार नकार
कोई ज्योतिषी नही बताता
उसका प्रभाव
उसी पर जीवित
मनुष्यों के जीवन पर
उसकी गोद में संकलित है
उसके समस्त अप्रकाशित फलादेश।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 16, 2015

गणित

कुछ दशमलव
प्रेम मांगा तुमसे
तुमने याचक कहा मुझे

कुछ सेंटीमीटर
दूरी थी तुमसे
नही मिली तुम आजतक

कुछ शून्य
नही दिए तुमनें उधार
दहाई बननें के लिए

इसलिए मैनें
बिना योग के
घटा लिया खुद को खुद से
और अनुत्तीर्ण हम हो गए
सम्बंधों के गणित में
बिना किसी परीक्षा के।

© डॉ.अजीत

Friday, May 15, 2015

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

Wednesday, May 13, 2015

सच

उत्तरोत्तर होता जाऊँगा मैं 
बेहद सतही और सस्ता
नही नाप सकेंगी 
तुम्हारे मन की आँखें भी 
मेरी चालाकियां
प्रेम और छल को मिला 
झूठ बोलूँगा मैं 
पूरे आत्मविश्वास के साथ
किन्तु परंतु के बीच रच दूंगा
एक महाकाव्य 
जहां ये तय करना मुश्किल होगा
ये स्तुति है या आलोचना 
खुद को खारिज करता हुआ
निकल जाऊँगा उस दिशा में 
जिस तरफ तुम्हारी पीठ है 
कवि होने का अर्थ हमेशा
सम्वेदनशील होना नही होता है
कवि को समझनें के लिए बचा कर रखों
थोड़ा सा सन्देह 
थोड़ा सा प्रेम
और कुछ सवाल हमेशा
कवि और कविता का अंतर 
एक अनिवार्य सच है 
भावुकता से इतर 
शब्द और अस्तित्व के  बीच
फांस सा फंसा हुआ सच।
© डॉ. अजीत

Monday, May 4, 2015

पहाड़

पहाड़ पर आकर लगता है
सब सुखद
शायद इसलिए
पीछे छोड़ आतें है हम
अपेक्षाओं का संसार
सागर का तट
नदी का उदगम्
झरनें का निर्वाण स्थल
घनें जंगल
खत्म होते रास्तें
टूटी हुई पगडंडिया
बताते है हमें
लघु और दीर्घ की पीड़ाएं
पहाड़ का मतलब
महज ऊंचाई नही
पहाड़ का मतलब है
खुद के अंदर देख पाना
ऊंचाई
गहराई
और समतल
पहाड़ इसलिए दूर रहतें है हमसें
ताकि उनके साथ
खुद के करीब जा सकें हम।

© डॉ.अजीत

Sunday, May 3, 2015

अति

सबसे ज्यादा डर
अपने गांव/शहर के लोगो से लगता है
सबसे ज्यादा शंकालु
मेरे मुहल्ले के लोग है
सबसे ज्यादा बैचेन
मेरी जाति के लोग है
सबसे ज्यादा असुरक्षित
मेरे धर्म के जानकर लोग है
सबसे ज्यादा मुझे अन्यथा
मेरे करीबी दोस्त लेतें है
सबसे ज्यादा व्यंग्यबाण
मुझे उनके लगे जो जानते है मुझे
लगभग डेढ़ दशक से
सबसे ज्यादा अनजाना
मेरा खुद का पड़ौसी है
रिश्तेंदारों की तो बात ही छोड़िए
अपने आसपास पसरी
इतनी अति के बीच
लिखना है मुझे प्रेम
बताना है अपना स्थाई दुःख
कहनी है अपनी तमाम कमजोरियां
हमेशा उतना आसान नही होता
जितना आसान दिखता है जीवन
इस एक जीवन में
यदि ये सब मैं कर पाया तो
उनके भरोसे पर कर सकूंगा
जो उपरोक्त में से एक भी नही है।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 2, 2015

मन

सबसे पहलें मेरे अंदर का
बच्चा मरा
फिर आदमी
फिर इंसान
और अब देह
मेरी मौत बिलकुल संदिग्ध नही है
यह उतनी ही स्वाभाविक है
जितनी तुम्हारें सपनें की मौत है
मन की मौत नही होती
आत्मा को अमर नही कह सकता
क्योंकि आत्मा देखी नही कभी
मगर
मन आज भी जानता हूँ
कई जन्मों पुराना है मेरा
वही विश्वासी मन
वहीं आहत मन
आधा और अधूरा मन।

© डॉ.अजीत