Tuesday, September 27, 2016

थायरॉयड

थायरॉयड
________
बेशक ये बदलाव
हार्मोनल था
मगर इस बदलाव में कोई क्रान्ति न थी
ये एक छिपा हुआ प्रतिशोध था

ये देह को मजबूरी के चरम तक देखने का
देह का एक बड़ा सस्ता मगर क्रूर प्रहसन था

थायरॉइड से लड़ती एक स्त्री की देखी फीकी हंसी
थायरॉयड से लड़ते एक पुरुष का देखा बोझिल गुस्सा
दोनों में एक बात का साम्य था
दोनों जानते थे अपनी थकन का ठीक ठीक अनुमान
व्याधि स्त्री पुरुष को कैसे मिला देती है एक बिंदु पर
साम्यता की यह सबसे गैर गणितीय समीकरण थी

मैंने पूछा जब एक स्त्री से थायरॉयड के बारें में
वो ले गई मेरा हाथ पकड़ कर दीमक की बांबी तक
उसने दिखाया चीटियों को कतार से चलते हुए
उसने दिखाई सीमेंट से पलस्तर हुई दीवार

यही सवाल जब एक पुरुष से किया मैंने
वो बैठ गया ऊकडू
धरती पर बनाया उसने एक त्रिभुज
उसने गिनवाईं अपनी धड़कनें
और लगभग हाँफते हुए बताया
उसे नही है अस्थमा

थायरॉइड उत्तर आधुनिक बीमारी है
ऐसा देह विज्ञानी कहते है
मनोविज्ञान इसे अपनी वाली बीमारी मानता ही नही
जबकि ये सबसे ज्यादा घुन की तरह चाटती है मन को

थायरॉयड से लड़ते स्त्री पुरुष को देख
ईश्वर के होने पर होने लगता है यकीन
वही मनुष्य को इस तरह लड़खड़ाता देख
हो सकता है खुश
और बचा सकता है प्रार्थना के बल पर अपनी सत्ता

थायरॉयड से लड़ते लोगो के परिजन
दवा के अलावा बहुत सी बातों से रहते है अनजान
उन्हें नही पता होता है
जब हंस रहा होता है एक थायरॉयड का मरीज़
ठीक उसी वक्त वो तलाश रहा था होता पैरो तले ज़मीन
गुरुत्वाकर्षण उससे खेलता रहता है आँख मिचोली
मोटापा बन चुका होता है
उसकी जॉली नेचर का एक स्थायी प्रतीक

थायरॉयड दरअसल उस गलती की सजा देता है
जो गलती आपने की ही नही होती कभी
थककर मनुष्य लौटता है पूर्व जन्म में
याददाश्त पर जोर देकर सोचता है
पूर्व जन्म के पाप
या विज्ञान के चश्में से पढ़ता है आनुवांशिकी
जब नही मिलता कोई ठीक ठीक जवाब
फिर डरते डरते पीता है पानी घूँट-घूँट

प्यास में पानी से
भूख में खाने से
डरना सिखा देता है थायरॉइड
और डरा हुआ मनुष्य जिस आत्म विश्वास से
लड़ता है लड़ाई इस बीमारी से
उसे देख थायरॉयड से पीड़ित व्यक्ति के
पैर छू लेना चाहता हूँ मै
मेरे पैर छू लेने से थायरॉइड नही छोड़ेगा
किसी स्त्री या पुरुष को
ये जानता हूँ मै
मगर और कर भी क्या सकता हूँ मैं
सिवाय इसके कि
थायरॉइड के बारें में थोड़ा बहुत जानता हूँ मै
जितना जानता हूँ वह पर्याप्त है
मुझे डराने के लिए।

© डॉ.अजित

Sunday, September 25, 2016

मामूलीपन

बेहद मामूली दुनिया थी मेरी
इतनी मामूली कि
दुखी हो सकता था मै
सब्जी वाले के दो रुपए कम न करने पर

खुश हो सकता था मैं
फटी जुराब होने के बावजूद
किसी को नजर न आने पर

मैं खुद इतना मामूली था
नही जानता था घर की पिछली गली में
कोई मेरा नाम
कई कई साल टेलर नही लेता था मेरी नाप
फिर भी सही रहता उसका अनुमान

मेरी बातें इतनी मामूली थी कि
सबसे गहरा दोस्त भी जम्हाई लेने लगता
और विषय बदल कर पूछता सवाल
और बताओ क्या चल रहा है

दरअसल,
मैंने खुद को जानबूझकर मामूली नही बनाया
मैं बनता चला गया
मामूली सी जिंदगी में
एक मामूली सा इंसान
मैं जब कहता कि मै खुश हूँ
मेरा परिवेश सोचता शराब पी है आज मैंने
मैंने जब कहता कि मैं दुखी हूँ
लोगबाग इसे मेरी आदत समझ लेते

वैसे मामूली होने से
मुझे कोई ख़ास दिक्कत नही थी
बल्कि ऐसा होना मेरे काम आया अक्सर
मुझसे नही थी किसी को सिफारिश की उम्मीद
मेरी अनुपस्थिति नही थी किसी भी महफ़िल में
जिज्ञासा और कौतुहल का विषय

जब मामूली सी बातों को मै दिल से लगा बैठता
यही मामूली होना मेरी सबसे ज्यादा मदद करता
मै हंस पड़ता रोते हुए
मैं रो पड़ता हंसते हुए

इस दौर में मामूली होना आसान नही था
हर कोई वहन नही कर सकता था मामूलीपन
इसकी अपनी एक कीमत थी
जिसको चुकाने की कोई मियाद नही थी
जो इतना बोझ उठा पाता
उसी के हिस्से में आती ये मामूली जिंदगी

मेरे हिस्से से जब किस्से में आई
ये मामूली ज़िंदगी
तब ये उनके समझ में आई
जो मुझे ख़ास समझकर
काट करे थे उम्मीद से भरी जिंदगी

उनकी निराशा पर
मुझे हुई मामूली सी हताशा
यही मामूलीपन बचा ले गया मुझे
गहरे अवसाद के पलों में आत्महत्या से

मामूली होने ने जीना थोड़ा आसान किया
और मरना थोड़ा मुश्किल
मामूलीपन की यही वो खास बात है
जिसे मेरा कोई ख़ास नही जान पाया
आजतक।

© डॉ.अजित

Friday, September 23, 2016

पिता के श्राद्ध पर

पिता के लिए...
तुम पिता थे मेरे
मेरे जीवन में लगभग अनिमंत्रित
बहुत से व्यक्तिगत आक्रोश थे मेरे
कुछ हास्यास्पद शिकायतें भी थी
जो कभी सुनाई नही तुम्हें
बचपन से तुम्हारी एक छवि थी
डर हमेशा आगे रहता
तुम हमेशा पीछे
एक वक्त तुम्हें देख शब्द अटक जाते थे मेरे
भूल जाता था मै चप्पल पहनना भी
शर्ट पहन लेता था पायजामे पर
थोड़ा बड़ा हुआ तो
मैंने तर्को से कई बार किया तुम्हें खारिज़
और विजयी मुद्रा में घूमता रहा आंगन में
असल में वही मेरी असल पराजय थी
जो पराजय का श्राप बन चिपक गई
मेरे अस्तित्व से
एक वक्त वो भी देखा
जब थे तुम बेहद मजबूर
दिला रहे थे मुझे आश्वस्ति
परेहज करने के भर रहे थे शपथ पत्र
तुम्हें लगा मैं डॉक्टर को ठीक ठीक बता सकता हूँ
तुम्हारी दशा
और बचा लूँगा तुम्हें उस वक्त मौत के मुंह से
मैं तुम्हारा बेटा था
मगर उस वक्त तुम
मुझे अपने पिता की तरह देख रहे थे
तुम गलत थे उस वक्त
मैं हमेशा से मजबूर था तुम्हारे सामने
बात जीवन की हो या मौत की
रहा हमेशा उतनी ही मात्रा में मजबूर
तुम्हें बचाने के मामले में
मैं मतलबी हो गया था
नही मानी तुम्हारी अंतिम इच्छा
जब तुमने कहा मुझे मेरी माँ के पास ले चले
वास्तव में मुझे नही पता था
ये आख़िरी शब्द होंगे तुम्हारे
हो सके तो मेरी अवज्ञा के लिए
मुझे माफ़ करना पिता
मैंने विज्ञान को मान लिया था ईश्वर
और इस झूठे आत्मविश्वास में था कि
अस्पताल से ले जाऊंगा तुम्हें ठीक कराकर
नही पता था
कलयुग में नही होता कोई ईश्वर
बस एक सच्चाई होती है मौत
जो नही छोड़ती किसी पिता या पुत्र को
तुम्हारी मौत से पहले
मुझे मांगनी थी कुछ अश्रुपूरित क्षमाएं
मुझे पता था
तुम माफ़ कर दोगे तुरन्त
मगर तुम चालाकी से निकल गए चुपचाप
अब ये क्षमाएं मेरे कंधे पर सवार रहती है हमेशा
आंसू भी नही देते है इनका साथ
सच ये है तुम बिन बड़ा अकेला पड़ गया हूँ मै
इतना अकेला कि जितने अकेले हो
तुम अपनी दुनिया में
और
दो अकेले पिता पुत्र
कभी नही मिला करते
न इस लोक में
न उस लोक में।
(पिताजी के श्राद्ध पर)

Wednesday, September 21, 2016

भदेस

उसने पूछा
क्या तुम कम्युनिस्ट हो?
मैंने कहा तुम्हें कैसे लगा
विरोधाभासों में जीते हो अक्सर
बैचेन भी हो और कंफर्टेबल भी
तुम्हारे पास समस्या है समाधान नही
तर्क है मगर व्यावहारिक संवदेना नही
हित की बातें करते वक्त हो जाते हो
एक तरफा और अतिवादी
इस हिसाब से तो प्लान्ड अपोर्चुनिस्ट हुआ मैं
मैंने हंसते हुए कहा
नही इतने भी चालाक नही हो तुम
मगर मुझे डर है बन सकते हो एकदिन
विचार उत्तेजना के साथ बेईमानी भी सिखाता है
जैसे तर्क को प्रयोग किया जा सकता है मनमुताबिक
तो क्या विचारशून्य होना चाहिए मुझे?
मैंने प्रतिवाद करते हुए कहा
यद्यपि यहां 'चाहना' एक असुविधा है
मगर मैं चाहती हूँ तुम ईमानदार रहो
प्रेम में
विचार में
सम्वेदना में
और सबसे बढ़कर खुद के साथ।
***
एकदिन मेरी खिंचाई करते हुए उसने कहा
ये क्या भदेस-भदेस लगाए रखते हो
सीखने की अनिच्छा को क्यों छिपाते हो
अपने देहातीपन से
क्यों खुद को करते हो इस तरह प्रोजेक्ट जैसे
सब शहरी होते है मतलबी,औपचारिक और संवदेनहीन
एक तुम ही हो सबसे निर्मल और आत्मीय
मैं सकते में आ गया ये सुनकर
नही था उसकी बातों का मेरे पास कोई जवाब
तभी छींक आ गई मुझे
उसने अपने रुमाल देते हुए कहा
लो भदेस आदमी रुमाल तो रखता नही
नाक पौंछते हुए हंस पड़ा मैं
हाईजीन कांशियस भी नही होता भदेस मैंने कहा
हां ! मगर इमेज कांशियस बहुत होता है
जानता है संकोचों को ग्लैमराइज़्ड करना
इतना कहकर हंस पड़ी वो
फिर देर तक हंसता रहा मेरा भदेसपन
सीसीडी में बैठकर।
***
अचानक उसने पूछा
आदमी मरने के बाद कहाँ जाता होगा
मैंने कहा
ये तो मरकर ही बताया जा सकता है
तो ये बात पहले मै बताना चाहूँगी
तुम सुनना हमेशा की तरह चुपचाप
मैंने कहा
मौत किसी के हाथ में नही
इसलिए ये अनुबंध बेकार है
उसने कहा
जिंदगी तो है हाथ में
चलो यही बतातें है जी कर कहाँ जाता है आदमी
मैंने कहा हां बताओं !
हंसते हुए वो बोली
फिलहाल तो तुम्हारी पनाह में
बाद का पता नही
ठीक उस वक्त उसकी आँखों में देख पाया मैं
अंतिम अरण्य का एक स्पष्ट मानचित्र।

© डॉ.अजित

Tuesday, September 20, 2016

चालाकी

जल्दी भरोसा करना
मैंने माँ से सीखा
जल्दी गुस्सा करना
मुझे पिता ने सिखाया
चुप रहना मैंने बहन से सीखा
पहली प्रतिस्पर्धा मुझे भाई ने सिखाई

सपनें देखनें मैंने सीखे
धुर आवारा दोस्तों की सोहबत में
जिनकी बातों की दिलचस्पी
आज भी मरी नही मेरे भीतर

प्रेम करना और छला जाना
प्रेम का घोषित पाठ था
जो लिखा था किसी दसवें उपनिषद में
ये स्व अर्जन स्व निमंत्रण का परिणाम था
इसलिए
प्रेमिका को नही कर सकता रेखांकित
इस संयोग के लिए
माता,पिता बहन और भाई की तरह

इतनी कमजोरियों के साथ बड़ा हुआ मनुष्य
प्रेम बेहद जल्दी में करता है
भरोसा उसकी गोद से उतरने को रहता है आतुर
उसकी पीठ पर लिखे होते है
व्यवहारिक न होने का मंत्र

उसके पास हमेशा रहती शिकायतें
वो रचता है रोज़ अपना एकांत
दुखों का ग्लैमर बचाता है उसका विशिष्टताबोध

वो होता है मेरे जितना चतुर
जो बदल देता है संज्ञा को सर्वनाम में
जैसे मैने बात खुद से शुरू की
और छोड़ दी उस पर लाकर।

© डॉ.अजित

Sunday, September 18, 2016

सवाल जवाब

उसने पूछा
शर्ट इन क्यों नही करते
क्यों दिखतें हो हमेशा अस्त व्यस्त
मैंने कहा
जेन्टिलमैन नही हूँ ना
फॉर्मल भी नही हूँ
हसंते हुए उसने कहा
जो हो उसके बारे में बताओ
जो नही हो तुम
उसे तुमसे बेहतर जानती हूँ मैं।
***
हमेशा देखती हूँ तुम्हें
स्लीपर या सैंडिल में
जूते क्यों नही पहनते हो तुम
उसने विस्मय से उलाहना देते हुए कहा
मैंने कहा
बंधन नही पंसद मुझे
चप्पल याद दिलाती है मुझे आवारगी
फिर तो नँगे पैर रहा करो तुम
एम एफ हुसैन की परंपरा बचाने वाला भी
आखिर कोई फनकार तो होना चाहिए
ताना मारते हुए उसे कहा
मैंने कहा ठीक है देखता हूँ
मुझे सीरियस होता देख उसने कहा
कैसे भी रहो मुझे फर्क नही पड़ता
हां ! तुम्हें चोट न लगे इसकी फ़िक्र जरूर है
मैंने कहा
क्या ये सम्भव है कि मुझे चोट न लगे
मेरे पैर पर अपने पैर रखते हुए उसने
आश्वस्ति और आत्मविश्वास से दिया जवाब
बिलकुल !
कम से कम मेरे साथ चलते कभी न लगेगी।
***
उसने पूछा एकदिन
कॉफी क्यों नही पसन्द तुम्हें
मैंने कहा जैसे तुम्हें चाय नही पसन्द
सवाल का जवाब सवाल नही होता
तुनकते हुए उसने कहा
अच्छा ये बताओ चाय क्यों है पसन्द
मैंने कहा क्यों का जवाब नही होता मेरे पास
मैं क्यों का जवाब ही नही तलाशता कभी
जैसे तुम कभी ये पूछ बैठो
तुम क्यों हो पसन्द मुझे
चाय की तरह नही बता सकता उसकी वजह
हम्म ! ये जवाब सही है
चलो चाय पीते है किसी कॉफी शॉप पर
ये सुनकर हंस पड़ा हमारे बीच खड़ा रास्ता।
***
अचानक एकदिन
उसने किया एक दार्शनिक सवाल
स्थिर प्यार क्या सड़ जाता है
स्थिर जल की तरह?
मैंने कहा
क्या स्थिर प्यार सम्भव है?
वो बोली हाँ ! बिलकुल सम्भव है
मुझे तो नही लगता है
मैने असहमत होते कहा
प्यार रूपांतरित होता रहता है
स्थिर होना सम्भव नही उसके लिए
मैंने कहा क्या महज यह एक जिज्ञासा है
या तुम्हारी मान्यता समझूं?
हंसते हुए उसने कहा फ़िलहाल तो जिज्ञासा ही समझो
मान्यता ब्रेक अप के बाद बता सकूँगी।

© डॉ.अजित

Friday, September 16, 2016

अफ़सोस

उसे नही पता
वो कैसे खुश होता है
उसने उसे मुद्दत से खुश नही देखा है
उसे ये भी नही पता
कौन सी बात उसे खुश कर सकती है
उसने देखा है उसे
खुश होने वाली बात पर
बेवजह उखड़ते हुए

वो खुश नही दिखता
इसका मतलब यह भी नही
वो दुखी है
तो क्या वो दुखी दिखता है
उसने खुद से पूछा कई बार
कोई सही जवाब नही मिला

खुशी एक सापेक्ष भाव है
दुःख से ज्यादा अमूर्त
जिसे आकार लेने में लगता है
लम्बा वक्त

उसने पूछा उससे दुःख के बारे में
सुनाए उसे प्रेरणा के कथन
जगाई सोई हुई सम्भावना
अपने दुख का कोई सही जवाब नही था उसके पास
अपनी खुशी को परिभाषित कर सकता था वो
मगर उसने ऐसा किया नही कभी

वो जितना खुला नजर आता
उससे कई गुना बन्द भी था
अपनी बंद दुनिया में

वो दोनों खोलते थे बाहर की ओर दरवाजे
उनकी खिड़कियां अंदर की तरफ खुलती थी

रोशनी वहां जिद नही करती थी
अँधेरा वहां एकाधिकार नही चाहता था
ऐसी संदिग्ध जगह वो दोनों
केवल सोचते थे प्रेम के बारे में

प्रेम को सोचते हुए उन्होंने जाना
खुद को सम्पूर्णता में
उनका अधूरापन कभी सहायक नही हुआ
प्रेम के मामलें में

पता नही ये बात
खुश होने लायक थी
या अफ़सोस करने लायक।

© डॉ.अजित

Monday, September 12, 2016

षड्यंत्र

चाय पीते वक्त एकदिन
मैने पूछ लिया यूं ही अचानक से
तुम्हारे जीवन की
सबसे बड़ी दुविधा क्या है?
कप को टेबल और लब के मध्य थामकर
एक गहरी सांस भरते हुए कहा उसने
जो मुझे पसन्द करता है
वो बिलकुल भी नही करता तुम्हे पसन्द।
***
मुद्दत बाद मिलने पर
उसने पूछा मुझसे
किसी को सम्पूर्णता में चाहना क्या सम्भव है?
मैंने कहा शायद नही
हम चाहतें है किसी को
कुछ कुछ हिस्सों में
कुछ कुछ किस्सों में
इस पर मुस्कुराते हुए उसने कहा
अच्छा लगा मुझे
जब शायद कहा तुमनें।
***
मैंने चिढ़ते हुए कहा एकदिन
यार ! तुम सवाल जवाब बहुत करती हो
प्रश्नों के शोर में
दुबक जाती है हमारे अस्तित्व की
निश्छल अनुभूतियां
बेज़ा बहस में खत्म होती जाती है ऊर्जा
हसंते हुए वो बोली
हां बात तो सही है तुम्हारी
मगर इस ऊर्जा को बचाकर करोगे क्या
ढाई शब्द तो ढाई साल में बोल नही पाए
ये उस वक्त तंज था
मगर सच था
जो बन गया बाद में मेरे वजूद का
एक एक शाश्वस्त सच।
***
एकदिन उसने
फोन किया और कहा
गति और नियति में फर्क बताओं
उस दिन भीड़ में था कहीं
ठीक से सुन नही पाया उसकी आवाज़
जवाब की भूमिका बना ही रहा था कि
हेलो हेलो कहकर कट गया फोन
उसके बाद उसका फोन नही
एसएमएस आया तुरन्त
शुक्रिया ! मिल गया जवाब
ये उसकी त्वरा नही
समय का षड्यंत्र था
जिसने स्वतः प्रेषित किए मेरे वो जवाब
जो मैंने कभी दिए ही नही।

©डॉ.अजित



प्राश्रय

स्मृतियों के एक अक्ष पर
टांग रखा है तुम्हारी अंगड़ाई को
जब भी दिल उदास होता है
तुम्हें देख मुस्कुरा पड़ता हूँ

उम्मीद और भरोसे के सहारे आजकल
तुम्हारी बातों को ओढ़ता हूँ
बैचेनी और नींद की चादर की तरह एक साथ
लगता है कहीं तुम भूल तो नही गई मुझे
फिर देता हूँ नसीहत खुद को ही
मान लिया भूल भी गई हो मुझे
मगर कैसे भूल सकती है मेरे पवित्र स्पर्श को

चाँद आधी रात कराहता है जब
जाग जाता हूँ हड़बड़ाकर
नही सुन पाते मेरे कान
तुम्हारी शिकायतों को
बन्द कमरे के बाहर चांदनी
चिपका देती है मेरी कुर्की का नोटिस

इनदिनों सबसे ज्यादा याद आता है
तुम्हारा गुस्सा
बरस जाना तुम्हारा आवारा बदली की तरह
मेरा माथा अब गर्म रहता है
बरसात के इंतजार में भूल गया हूँ मै
हिंदी मास के नाम
सितंबर महीने की सुनता हूँ
मौसम की भविष्यवाणी
इस तरह तुम्हें याद करते हुआ जाता हूँ अंग्रेज

कृष्ण -शुक्ल पक्ष और नक्षत्र के फलादेश
बांचता हूँ रोज़
करता हूँ दिशाशूल का विचार
जिस जगह तुम रहती हो
इसी ग्रह पर होने के बावजूद
आसान नही है वहां की यात्रा
शुभ अशुभ से परे मैं घड़ी की सुईयों पर
झूला डाल ऊंघता रहता हूँ दिन में कई बार

भले ही इस देश का बाशिंदा हूँ
मगर तुम्हारा शहर करता है इनकार
मुझे एक नागरिक मानने से
उसे लगता हूँ मै संदिग्ध
और तुम्हारी बाह्य शान्ति के लिए एक खतरा
निर्वासन प्राश्रय के लिए
नही करता वो स्वीकार मेरी तमाम अर्जियां

फिर तुम्हारी यादें देती है दिलासा
कि तुम कर रही हो इंतजार मेरा बसन्त सा
साल कोई सा भी हो
मुझे जाना होगा उसी तरह से घुमड़कर
ताकि बह जाए हमारे मध्य की
तमाम गलतफहमियां
हंसी के पतनालों से

उम्मीद के भरोसे हूँ आजकल
तुम पता नही किसके भरोसे हो
मेरे तो नही हो कम से कम
चलो ! ये भी एक अच्छी ही बात है।

©डॉ.अजित

Saturday, September 10, 2016

डायरी

उसने दो डायरी मुझे गिफ्ट की
और कहा रख लो तुम्हारे काम आएंगी
मैंने रख ली
बिना किसी ख़ास उत्साह के
उनकी खूबसूरती पर
मैं इस कदर मुग्ध था कि
उन पर लिखकर कुछ भी
उनका सौंदर्य नही खत्म करना चाहता था
इसलिए यहां तक उन पर
अपना नाम भी नही लिखा मैंने
आज भी वो मेरे पास सुरक्षित रखी है
एक डायरी में प्लानर भी है
मैं उसे देखता हूँ तो उदास हो जाता हूँ
दूसरी डायरी में एक कविता लिखना चाहता हूँ
जो कभी प्रकाशित न हो
दोनों डायरियों को देख मुझे
अतीत और भविष्य याद आता है
वर्तमान के भरोसे उन्हे छूता हूँ
और लौट आता हूँ
अब मुझे महसूस होता है
तुमनें मुझे महज दो डायरी गिफ्ट नही की थी
बल्कि दो बातें सौंपी थी एक साथ
मुझे खेद है
मै जिम्मेदारी से उनको बचा न पाया
मन के दस्तावेजों को नष्ट करने का दोषी हूँ मै
कागज़ के भरोसे यदि माफी मिलती तो
सबसे पहले दोनों डायरी तुम्हें लौटाता
गिफ्ट लौटाने के अपशुकन की परवाह किए बगैर
ताकि
कोरी डायरी देख तुम समझ पाती
काल संधि पर खड़े एक शख्स के
मन का कोरापन।

©डॉ.अजित

Thursday, September 8, 2016

आब

कभी जिसको हमारे गुरुर पे गुरुर था
वो फ़क़त अधूरे लम्हों का सुरूर था

भीड़ में वो था बेहद तन्हा और मामूली
खुद की तन्हाई में वो बेहद मशहूर था

दिन को कहते थे रात और रात को दिन
वो दौर भी क्या दौर था अजब फितूर था

मैं खोया था अपनी ही बदनसीबियों में
गुफ़्तगु में उसे लगा मैं बेहद मगरूर था

बिछड़ कर उससे रास्तों का पता न मिला
वो शख्स नही हौसलें का एक दस्तूर था

खोकर उसे मैं अपनी आब खो बैठा
वो मस्तक का मेरे ऐसा कोहिनूर था

© डॉ.अजित

दुनिया

दरअसल
मैं ही गैर हाजिर होता जाता हूँ
दृश्य से ओझल सा
निकलता जाता हूँ दृष्टि की सीमा से बाहर

छोड़ता जाता हूँ
मील के पत्थर
जिन पर लिखी है
मंजिल की संदिग्ध दूरी

कहता हूँ मौन की भाषा में
सम्प्रेषण के सिद्धांतों को देता हुआ चुनौति
बात का अटक जाना नियति नही
बात का भटक जाना शायद प्रारब्ध है

जाता हूँ दक्षिण दिशा
छोड़ता हूँ लिपि का अधिकार
बनाता हूँ ध्वनि की नाव
और उतर जाता हूँ
समय के समन्दर में

प्रतिक्षा के कौतुहल मे
स्मृतियों के आंगन में
जम गई है थोड़ी काई
फिसलता हूँ उस पर
खिसियाता हूँ खुद पर
छिपाता हूँ छिली हुई कोहनी
हंसता हूँ तुम्हें देखकर

कुछ भी नही हुआ है
मेरी देह कहती है

लगाता हूँ एक छलांग मन के वितान से
न डूबता हूँ
न तैरता हूँ

बस देखता हूँ किनारे पर खड़ी दुनिया
जो थोड़ी टेढ़ी हो गई है देखते देखतें।

© डॉ.अजित 

Monday, September 5, 2016

जमाना

क्या फायदा अब बहस में जी जलाने का
चलों हम ही देते है मौका भूल जाने का

किस्सों कहानियों में अच्छा लगता है
दुश्वार बहुत है जहां दोस्ती निभाने का

वक्त के मुक़ाबिल जब से वजूद खड़ा था
नही छोड़ा एक भी मौका दिल दुखाने का

जिन रास्तों पर तुम कभी हमसफ़र थे मेरे
फिर न पूछा किसी ने उनसे पता ठिकाने का

हंसी आई तो नम हो गई आँखें अक्सर
दौर था वो बेसबब खुद से रूठ जाने का

© डॉ.अजित

आना जाना

आना होता है जाना होता है
याद में बीता जमाना होता है

नामुकिन सी कुछ बातों को भी
इश्क में बारहा निभाना होता है

लबों की कैद ज़बाँ समझती है
मगर जाहिर अफसाना होता है

थक कर सर को न मिले दामन जब
मयखाना तब एक ठिकाना होता है

संवर गए या बिखर गए थके मांदे घर गए
नींद न भी आए आखिर सो जाना होता है

लिहाज़ आँख की और रिश्तों की बची रहें
बेहद प्यारी चीज़ को भूल जाना होता है

हर जन्म की होती है कुछ अपनी मजबूरियां
अगले जन्म के भरोसे बस मर जाना होता है

न हो शिकवे कोई न हो रंज किसी से हजार
चुपचाप यूं भी बज़्म से चले जाना होता है

बीत जाती है बातें रीत जाती है रातें
रोने से ठीक पहले मुस्कुराना होता है

©डॉ.अजित

Sunday, September 4, 2016

आओं एक बार

आओं! बतर्ज़ मौसिकी से
तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूं
उलझी हुई सी मगर भटकी हुई नही जुल्फों को
एक आवारा पहाड़ी हवा से मिलवा दूं
थोड़ा नजदीक बैठो
साँसों की सुलह करा दूं
दफ़अतन बात बस इतनी सी है
ये जो तुम सही गलत की सोचो में गुम हो
हरफ़ और जज्बातों की पैरहन में गुम हो
आओ इनसे तुम्हारी रिहाई करा दूं

एक कली जो यूं मुरझाई
एक हंसी जो बेसबब न आई
एक खामोशी जो चुनती है तन्हाई
करवटों का कर्जा लौटा दूं
जिस्म की पैमाईश घटा दूं
आओ तुम्हें एक बार तुमसे मिलवा दूं

हरगिज़ ये गम न होगा
तुमसे कुछ भी तुम्हारा कम न होगा
वसल औ हिज्र की रातों का तजरबा नम न होगा
खुशबूओं का फिर ऐसा मौसम न होगा
गई रुतों को एक चिट्ठी लिखवा दूं
आओं तुम्हारे माथे पर आधा चाँद उगा दूं

नुमाईश नही ये जिक्र ए वफ़ा है
हयात खुद बने के खड़ी हया है
पलकों के रोशनदान में लगे जाले हटा दूं
रोशनी के लिबास में कुछ वादें दोहरा दूं
शिकवों से हर एक रंज मिटा दूं
आओं तुम्हारे कान पर एक ताबीज़ छुआ दूं

आओं फिर से एक नई बात सुना दूं
आओं हकीकत को थोड़ी देर के लिए उलझा दूं।

©डॉ.अजित