उसका हाथ देखकर
उसे थामने की इच्छा होती थी
हर बार
उसके हाथों को पकड़
किया जा सकता था
दुनिया की हर दुविधा को पार
उसके हाथों में
आश्वस्ति की गंध थी
जिसे महसूस किया जा सकता था
अपने देह में किसी कस्तूरी मृग की तरह
उसकी हथेली की प्रतिलिपि
आज भी सुरक्षित है मेरी
हस्तरेखाओं के पास
जब-जब मैंने थामा उसका हाथ
बदल गया मेरे अनिष्ट का फलादेश
मुश्किल वक्त में शिद्दत से आता था याद
उसके हाथ का वो गहरा स्पर्श
जिसमें सन्देह की नमी नहीं थी
अपनत्व की औषधि थी
जो करती थी मेरा नियमित उपचार।
©डॉ. अजित
एक लम्बी खमोशी के बाद की सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ नवंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर।
ReplyDeleteएक अनुभवशील, उन्मादित कविता ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुंदर।
सादर।
भली कविता
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