Wednesday, May 1, 2024

छल

 

कमोबेश प्रत्येक स्त्री कहती थी यें दो बात

एक बार वो आगे बढ़ जाए तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखती

एक बार भूलने के बाद वो याद नहीं करती किसी को


उसकी 'आह' में है श्राप जितनी शक्ति

जिससे नष्ट हो सकता है किसी का

समस्त संचित पुण्यकर्म

इसी तरह पुरुष दोहराता था यें दो बात

कोई उसे ठीक से समझ न सका आज तक

जल्दी भरोसा करने की उसे

एक खराब आदत रही सदा


दोनों बातें सच थी

दोनों बातें झूठ भी थी


सच और झूठ से इतर

ये दो बातें हजार बातों का निचोड़ भी समझी जा सकती थी


खासकर उन बातों का

जो स्त्री पुरुष एक सही समय पर नहीं कह पाए थे

एक दूसरे को


दरअसल, इन्हें उपचारिक बातें कहना अधिक उचित होगा

इन्हीं बातों के भरोसे स्त्री और पुरुष करते थे

एक दूसरे को माफ

और डरते थे छल से


क्योंकि ये दोनों किस्म की बातें

खुद से किया गया एक सात्विक छल था


जिस दोहराते समय

आसान होता था अपने आँसू पौंछना

और फिर एक लंबी गहरी सांस छोड़ते हुए

अपने सबसे करीब दोस्त यह कहना-


छोड़ो ! यह बात ,कोई दूसरी बात करते हैं।

© डॉ. अजित

 

Wednesday, April 24, 2024

धूमकेतु

 

उसके  माता-पिता के मध्य प्रेम नहीं था

एक ही छत के नीचे वे दो अजनबी थे

 

उसके भाई-बहन भी अपनी वजहों से

खिचे हुए और रूखे थे

 

उसकी  प्रेमिका को उससे कोई शिकायत नहीं थी

मगर शिकायत करती थी उसका हमेशा पीछा

 

दोस्तों के मध्य वो बदनाम था

छिपा हुआ और घुन्ना शख़्स के रूप में

 

स्त्री को देखकर वो घिर जाता था

अतिशय संकोच और शिष्टाचार से

बात-बेबात मांगने लगता था माफी

 

बच्चे उसे देख जाते थे डर

बुजुर्गों को वो लगता था

गैर मिलनसार और असामाजिक

 

अधेड़ उसे देख हँसते हुए हो जाते चुप

 

प्रेम की इतनी जटिलताओं के बीच

वो देखता था विस्मय के साथ सबको

वो करता था संदेह सबकी निष्ठाओं पर

 

वो प्रेम के ग्रह पर पटका गया था

किसी धूमकेतु की तरह

बिना किसी का  कुछ बिगाड़े

वो पड़ा था अकेला निर्जन

 

ताकि एकदिन उसके जरिए

जान सके लोग यह बात

प्रेम में धूमकेतु होना  

कोई वैज्ञानिक घटना नहीं है

 

और बता सके

उसकी उस यात्रा की बारे में

जो प्रेम की धूल से इस कदर अटी पड़ी थी कि

मुंह धोने पर बदल जाती थी

हर बार उसकी शक्ल।

 

© डॉ. अजित

 

 

 

 

Saturday, February 17, 2024

अक्षर

 

अक्सर उसने मुझे घर पहुंचाया

यह कहते हुए कि

कोई बेहद जरूरी शख़्स

घर पर कर रहा है मेरा इंतज़ार


अक्सर उसने मुझे अराजक होने से बचाए

यह कहते हुए कि

कामनाओं की दासता से बेहतर है

उनसे गुजर कर उनसे मुक्त हो जाना


अक्सर उसने मुझसे पूछे असुविधाजनक सवाल

ताकि मेरे पास बचा रहे प्रेम करने लायक औचित्य सदा


अक्सर वो चुप हो गयी अचानक

एक छोटी लड़ाई के बाद


अक्सर हमें प्यार आया उन बातों पर

जो हकीकत में कहीं न थी


अक्सर उसका जिक्र कर बैठता हूँ मैं

कहीं न कहीं

जानते हुए यह बात

उसे बिलकुल पसंद नहीं था अपना जिक्र


 किसी अक्षर के जरिए नहीं बताया जा सकता

क्या था वह जो  घटित हुआ था हमारे मध्य

जो आज भी आता रहता है याद अक्सर।

© डॉ. अजित