त्रासदीपूर्ण जीवनशैली
अवसादो से भरी नियति
सुख के छींटे शायद ही पडे हो
कभी- कभी
और
दुख एक स्थाई भाव
इतने निराशावादी
प्रतिमानो के साथ
जीवन मे
आत्मविश्वासपूर्वक ‘सामान्य’
एवम लौकिक सम्भावनाए तलाशने
के तुम्हारे प्रयास पर
कोई भी सम्वेदनशील व्यक्ति
हतप्रभ हो सकता है
ठीक उसी तरह
जैसे मैने अपना बचाव किया था
दार्शनिकता एवम बौधिकता से पूर्ण
अभिव्यक्ति मे
तार्किकता तलाश कर
इस प्रकार के प्रयास
मेरे जैसे व्यक्ति के लिए
सदैव बौधिक हथकंडे रहे है
प्रभाव उत्पादन के लिए
लेकिन
यथार्थ की सीमाओ
से शंकित मन से स्वत:
तंत्र विकसित किया
स्वीकृति के साथ
अस्वीकृति के बोध का
प्रतिमान/दृष्टिकोण/अनुभव
और सम्भावनाओ के विकल्प
के रुप मे इतनी पारस्परिक भिन्नता
होने के बाद भी
तुम्हारा प्रखर आशावाद
मेरे लिए प्राय:बौधिक बैचेनी का
विषय रहा है
ऐसी बैचेनी जिसको कभी
अभिव्यक्ति नही मिली
घुटन/अवसाद/कुंठा का
संताप भोगते हुए
कभी-कभी लगा
कि
तुम्हारी समझ मे समग्रता का अभाव है
या व्यक्तिविश्लेषण का
अचानाक ख्याल आता है
संक्षिप्त विरोधाभास
आंशिक अपेक्षाबोध
और व्यापक सम्वेदना के धरातल पर
कुछ नये सम्बन्धो का
’अर्थ’ तलाशते
तुम्हारे परिपक्व प्रयास
कही प्रतिभासी
विरोधाभास से उपजी
महज एक बौधिक फसल
तो नही
जीवन के समानांतर यथार्थ/नियति
और असामान्यबोध
के बीच
तुम्हारी उपस्थिति उपलब्धि है
अथवा
एक बौधिक त्रासदी
जिसको भोगना
कभी सुखद लगता है
तो कभी
बडा असहनीय....।
डा.अजीत
बातें बहुत कहना चाहता हूं, कहता भी हूं, पर हमेशा अधूरी रह जाती हैं, सोचता हूं, कहूंगा...शेष फिर...
Tuesday, January 5, 2010
Monday, January 4, 2010
चिंतन
अक्सर
मित्र/परिचित
शुभचिंतक एवम हितचिंतक
एक तार्किक सवाल करते है
और क्या चल रहा है आजकल?
इस चलने का अभिप्राय
कुछ करने से होता है
पता नही उनका सवाल
गतिशीलता के मानक तय करता है
अथवा
जडता की गहराई की
सम्भावना तलाशता है
हो सकता उनकी जिज्ञासा
नियोजन से सम्बन्धित हो
लेकिन कुछ करना
और कुछ भी न करना
दोनो दर्शनो की
तात्विक समीक्षा का अधिकार
सदैव
इनके पास सुरक्षित रहता है
और
मेरी प्रतिक्रिया इनके बौधिक आग्रह,अपेक्षाओ
से विरोधाभासी रही है
मेरे चिंतन की दिशा
कुछ करने
और कुछ भी न करने के मध्य से
रेंगती हुई
क्या करु?
क्या किया जा सकता है
आदि की दिशा मे
बढती जाती है
प्राय:ऐसे सवाल
मानसिक खीझ का विषय
बनते है
और निजता का हनन का बोध
अलग से
लेकिन
कुछ भी अप्रत्याशित करना
उपलब्धि एवम सम्बन्धता के
संयुक्त मनोविज्ञान की उपज होती है.
जिससे अभिप्रेरणा प्राप्त
हमारे ‘आत्मीय’
अपने प्रश्नो के साथ
बहुत सारे करने के
विकल्प भी साधिकार
प्रस्तुत करते है
जिनकी व्यंजना
कभी परामर्श लगती है
तो कभी एक नसीहत भी
बडा सवाल यह पैदा होता है
कि समग्र व्यक्तित्व के मूल्यांकन
के मानक क्या कुछ करने
या कुछ विशेष करने से ही
तय होते है?
मानवीय अस्तित्व का
कोई महत्व नही
समग्र निजता का भी कोई अर्थ नही
कुछ भी न करने का दर्शन
कुछ करने से कही अर्थो मे
न केवल व्यापक है
बल्कि जटिल भी
जिसे अक्सर
मेरी अकर्मण्यता मानकर
विभिन्न विकल्पो के प्रस्ताव
प्रस्तुत किए जाते है
और मेरे लिए
ये शायद की कभी सम्भव हो
कि अस्तित्व/चिंतन/निजता/अभिप्ररेणा/महत्वकाक्षाओ
के नितांत ही
व्यक्तिगत स्रोत त्याग कर उनकी कुंठाओ/ महत्वकाक्षाओ
के बोझ को ढो संकू
लेकिन
रोचक बात यह है
कि
उनके प्रयासो की उर्जा
एवम बौधिक आग्रह को देखकर
कभी- कभी
मुझे भी लगने लगता है
कि
आखिर मै कर क्या रहा हू....?
डा.अजीत
मित्र/परिचित
शुभचिंतक एवम हितचिंतक
एक तार्किक सवाल करते है
और क्या चल रहा है आजकल?
इस चलने का अभिप्राय
कुछ करने से होता है
पता नही उनका सवाल
गतिशीलता के मानक तय करता है
अथवा
जडता की गहराई की
सम्भावना तलाशता है
हो सकता उनकी जिज्ञासा
नियोजन से सम्बन्धित हो
लेकिन कुछ करना
और कुछ भी न करना
दोनो दर्शनो की
तात्विक समीक्षा का अधिकार
सदैव
इनके पास सुरक्षित रहता है
और
मेरी प्रतिक्रिया इनके बौधिक आग्रह,अपेक्षाओ
से विरोधाभासी रही है
मेरे चिंतन की दिशा
कुछ करने
और कुछ भी न करने के मध्य से
रेंगती हुई
क्या करु?
क्या किया जा सकता है
आदि की दिशा मे
बढती जाती है
प्राय:ऐसे सवाल
मानसिक खीझ का विषय
बनते है
और निजता का हनन का बोध
अलग से
लेकिन
कुछ भी अप्रत्याशित करना
उपलब्धि एवम सम्बन्धता के
संयुक्त मनोविज्ञान की उपज होती है.
जिससे अभिप्रेरणा प्राप्त
हमारे ‘आत्मीय’
अपने प्रश्नो के साथ
बहुत सारे करने के
विकल्प भी साधिकार
प्रस्तुत करते है
जिनकी व्यंजना
कभी परामर्श लगती है
तो कभी एक नसीहत भी
बडा सवाल यह पैदा होता है
कि समग्र व्यक्तित्व के मूल्यांकन
के मानक क्या कुछ करने
या कुछ विशेष करने से ही
तय होते है?
मानवीय अस्तित्व का
कोई महत्व नही
समग्र निजता का भी कोई अर्थ नही
कुछ भी न करने का दर्शन
कुछ करने से कही अर्थो मे
न केवल व्यापक है
बल्कि जटिल भी
जिसे अक्सर
मेरी अकर्मण्यता मानकर
विभिन्न विकल्पो के प्रस्ताव
प्रस्तुत किए जाते है
और मेरे लिए
ये शायद की कभी सम्भव हो
कि अस्तित्व/चिंतन/निजता/अभिप्ररेणा/महत्वकाक्षाओ
के नितांत ही
व्यक्तिगत स्रोत त्याग कर उनकी कुंठाओ/ महत्वकाक्षाओ
के बोझ को ढो संकू
लेकिन
रोचक बात यह है
कि
उनके प्रयासो की उर्जा
एवम बौधिक आग्रह को देखकर
कभी- कभी
मुझे भी लगने लगता है
कि
आखिर मै कर क्या रहा हू....?
डा.अजीत
Saturday, January 2, 2010
बीजगणित
सन्दर्भ
प्रसंग
व्याख्या
तीनो के समन्वय
मे उर्जा का नही
सम्वेदना का कितना
व्यय हुआ
इसका विवरण
जीवन के बीजगणित मे
तलाशना चाहता हू
सम्बन्ध जीने से जीया जाता है
इससे कोई औपचारिक आपत्ति नही है
लेकिन यदि सम्बन्ध जीते- जीते यह अहसास होने लगे
कि
इस कौशल का प्रयोग
कभी भी अप्रत्याशित दिशा तय कर लेगा
स्वत:
तब
खिन्नता का बोध नही ‘बोझ’
कदमो मे लडखडाहट भर देता है
आवाज मे रिक्त कम्पन
सम्वेदना/अतीत/स्मृति के दर्शन से पोषित
सम्बन्धो की धरा
सदैव उर्वरा रहने का
स्वाभाविक अधिकार रखती है
लेकिन
पारस्परिक अनुभुतियो के
व्यापक संसार मे
वेदना का एक पक्षीय व्यापार
सम्बन्धो की समसामयिकता
पर प्रश्नचिन्ह लगाता
प्रतीत होता है
और
प्रासंगिकता पर
अप्रासंगिक होने का सतत भय
एक दिन स्थाई रुप से मौन कर देता है
समस्त अपेक्षाबोध को
जीवन की अस्थाई रिक्तता के बोध प्रणय से उपजे सम्बन्ध
बचपन की स्मृतियो की भांति
व्यस्क होने से पूर्व ही
अपना अर्थ खो देते है
अर्थ खोना उतना बडा खेद का विषय नही है
जितना इस अप्रमेय समीकरण मे
अपने व्यक्ति विश्लेषण की समीक्षा की
पुनर्समीक्षा की बात सोचना
क्योंकि अतीत के स्थाई भाव,प्ररेणा
को एक झटके से छोडकर
सहजभाव से जी पाना
मुश्किल नही
असम्भव है
किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति के लिए
मुझे ऐसा लगता है
अक्सर
पता नही क्यों...?
डा.अजीत
प्रसंग
व्याख्या
तीनो के समन्वय
मे उर्जा का नही
सम्वेदना का कितना
व्यय हुआ
इसका विवरण
जीवन के बीजगणित मे
तलाशना चाहता हू
सम्बन्ध जीने से जीया जाता है
इससे कोई औपचारिक आपत्ति नही है
लेकिन यदि सम्बन्ध जीते- जीते यह अहसास होने लगे
कि
इस कौशल का प्रयोग
कभी भी अप्रत्याशित दिशा तय कर लेगा
स्वत:
तब
खिन्नता का बोध नही ‘बोझ’
कदमो मे लडखडाहट भर देता है
आवाज मे रिक्त कम्पन
सम्वेदना/अतीत/स्मृति के दर्शन से पोषित
सम्बन्धो की धरा
सदैव उर्वरा रहने का
स्वाभाविक अधिकार रखती है
लेकिन
पारस्परिक अनुभुतियो के
व्यापक संसार मे
वेदना का एक पक्षीय व्यापार
सम्बन्धो की समसामयिकता
पर प्रश्नचिन्ह लगाता
प्रतीत होता है
और
प्रासंगिकता पर
अप्रासंगिक होने का सतत भय
एक दिन स्थाई रुप से मौन कर देता है
समस्त अपेक्षाबोध को
जीवन की अस्थाई रिक्तता के बोध प्रणय से उपजे सम्बन्ध
बचपन की स्मृतियो की भांति
व्यस्क होने से पूर्व ही
अपना अर्थ खो देते है
अर्थ खोना उतना बडा खेद का विषय नही है
जितना इस अप्रमेय समीकरण मे
अपने व्यक्ति विश्लेषण की समीक्षा की
पुनर्समीक्षा की बात सोचना
क्योंकि अतीत के स्थाई भाव,प्ररेणा
को एक झटके से छोडकर
सहजभाव से जी पाना
मुश्किल नही
असम्भव है
किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति के लिए
मुझे ऐसा लगता है
अक्सर
पता नही क्यों...?
डा.अजीत