भीड में खडे लोग
और इंतज़ार में
खडा मुसाफिर
एक दूसरे से
अनजान थे लेकिन
अचानक अजनबीपन से उपजा
मैत्री भाव
बात करने की एक
वजह बनता गया
कभी अनजान चेहरों
के कौतुहल से अलगाव
तो कभी जिज्ञासा बढी और
सबकी चिंता,दुख अपने लगने लगे
एक पल के लिए ऐसा भी
हुआ कि अपनी उधेडबुन
को भूल कर मन
सब के बीच बावरा बन निकल पडा
जहाँ उसे लिफ्ट लेने के लिए
खडा होना था
वहाँ पर न कोई लिफ्ट दे रहा था
न ले रहा था
सब कुछ ठहराव मे भागने जैसे था
करीब-करीब अपने आप को
भीड मे खो देने की कवायद जैसा
वह घर से निकला
भीड का हिस्सा बना
और फिर खो गया
उस रास्ते की धुन में
जिसकी मंजिल पर दो रास्ते
जाते थे
एक सीधा दिल का
और दूसरा दूनियादारी का
अफसोस भीड,रास्ता और
मंजिल तीनों का मिज़ाज
अलग था उसके मिज़ाज़ से
लेकिन उसका सफर जारी रहा
और थोडा-थोडा दिलचस्प भी
मंजिल का पता पूछने तक...।
डा.अजीत