उसे लगता था
मेरे हर मर्ज़ की दवा उसके पास हैऔर मेरे मर्ज़
बदलते रहे
फिर उसने दवाई की बात करना छोड़ दिया।
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उसे लगता था
मैं डरपोक हूँ
यह सच था
मैं था भी
मेरा डर गैर जरूरी नहीं था
इसलिए
उसने हर बार डर की बात की
और डर खत्म होनी की बजाए बढ़ता गया
यह उसका स्थायी डर बना।
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उसे प्यार की बात
बदलनी आती थी
वो कह सकता था
बहुत कोमल बात
बिना प्यार की ध्वनि का सहारा लिए
अंतत: वो सिद्ध हुआ एक बातफ़रोश
बातों की कोमलता बदल गई
वाग विलास में।
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उसे किसी की प्रतीक्षा नहीं थी
मगर वो प्रतीक्षारत था
वो किसी का नहीं था
मगर कोई उसका था
वो वहाँ नहीं था
जहाँ दिखता था
इसलिए उसकी बातों पर
केवल हँसा नहीं जा सकता था।
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© डॉ. अजित
वाह
ReplyDeleteवाह.आभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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