Monday, November 27, 2023

दुःख

 पहला दुःख 

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सघन दिखता था

धीमा पिसता था

थोड़ा तरल था

मगर गरल था


मगर मैं बचकर आ गया

खुशियों के बहाने बता गया।


दूसरा दुःख

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अनुभव निस्तेज था

तीक्ष्ण दुःख तेज़ था

चेहरे जरूर बदल गए थे 

ताप में अहसास कुछ गल गए थे


मगर मैं देखता रहा निर्बाध

क्षमा किए सबके अपराध 

क्योंकि वो दुःख था

शिकायतें सुख की चीज थी।


तीसरा दुःख

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पहले दो से यह भिन्न था

तर्कों में भी विपन्न था

मैंने उस की तरफ पीठ की 

तबीयत मन की भी ढीठ की 


दुःख कहीं न गया 

तब जीवन में जानी यह बात

दुःख केवल सुख की अनुपस्थिति में 

नहीं करता है घात


दुःख कहता था,सुख है

और सुख रहता था मौन।


©डॉ. अजित 


6 comments:

  1. क्या बात है बेहतरीन अभिव्यक्ति सर।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. सुख-दुख की यह आंखमिचौली चलती रहती है
    वयर्थ ही उसमें दुनिया सारी पिसती रहती है

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  3. दुःख कहीं न गया

    तब जीवन में जानी यह बात

    दुःख केवल सुख की अनुपस्थिति में

    नहीं करता है घात



    दुःख कहता था,सुख है

    और सुख रहता था मौन।
    वाह!!!
    क्या बात...
    हाँ हर बार दुख नये वेष में आता है पिछले से बिल्कुल अलग....

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