"मैं तलाशता रहा
तुम्हारे शब्दकोष में
अपने दो शब्द और तुम
मुझे न जाने क्या-क्या
उपहार में देती रही
सिवाय पीड़ा के
ऐसा भी नही है कि
मैं बाँट देता तुम्हरी
अनकही पीड़ा
मैं तो स्वयं बटा हुआ था
अपनत्व की आदत
कभी-कभी
परेशान करती है मुझे
इसलिए
तुम पर बडबड़ाता हूँ
अकारण ही कई बार
एक तुम हो कि
हमेशा गंभीरता से
सुनती हो..
सुनाती कुछ भी नही
मैं तलाशता रहा हूँ
अपने वे शब्द
सुन नही सकता ..
लेकिन,
कई बार गीली पलकों के
पीछे से झांकता
एक सम्पूर्ण व्यथा का
संसार जरुर
मेरी विवशता
तुम्हारी परिपक्वता
और...हमारी नियति
का मूक वर्त्तचित्र बनाता है
जो शायद
हम तथाकथित
बुधिजिवियो की समझ से परे हैं...."
डॉ.अजीत
bahut khuubsurat baaten....panktiyaan
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