Saturday, January 5, 2008

नियति

"नियति के
विरुद्ध चलना
साहस का विषय था
ठीक तुम्हारी
परिस्थतिजन्य समस्याओ
की तरह
मैंने चाहा
परन्तु
समय ने नही..
इसलिए
शायद आज समानान्तर
चलते हुए
हम दो नदी के किनारों
की तरह सागर के
मुहाने पर पहुँच गए है..
तुम
समाहित होना चाहती हो
और मैं
संबोधित
तुम्हारी पीड़ा के प्रहरी के
नाम से
जड़ता और गति में
विशेष अर्थगत
अंतर प्रतीत नही होता है
हमारी नियति देख कर..
तुम गतिशील आज भी
मैं जड़ता में गतिशीलता
तलाश रहा हूँ
भाव भी संक्रमित से हो गए है
शायद,
परिभाषा बनाते-बनाते
हम अपना
स्वयं का अर्थ खो चुके है ..
तुम्हारी आशा
प्रहसन का विषय है
और मेरी
जिद
शायद मानस की
अपरिपक्वता का...."

डॉ. अजीत

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