Thursday, August 7, 2014

ईश्वर

लिखी जा रही थी जिसके लिए कविता
वो बहस को अपने कंधो पर बढ़ा रही थी
लिखा जा रहा था जिसके लिए विचार
वो प्रेम कविता पढ़ रही थी
बनाई जा रही था जिसके लिए नूतन धुन
वो पसीना बहा रही थी खेल के मैदान में
जिसके लिए योग सूत्र खोजे गए
वो कीर्तन में रत थी ईश्वर को मनाने के लिए
जिसके लिए दर्शन का अनुशीलन किया
वो विश्वास की नदी बन गई थी
ज्ञान विवेक दर्शन प्रज्ञा जिसके लिए ओढ़े गए
वो हंस रही थी पागलों जैसी उन्मुक्त हंसी
मनमुताबिक़ न मिलने का दौर था वह
लगभग सभी लोग गलत पेशे में थे
उनकी अनिच्छाएं उनके चेहरों पर पुती थी
लोग और उनकी दुनिया
हर ढाई घंटे में बदल रही थी
वो विस्मय से हांफता और
अपनी नादानी से काँपता
एक पैर से चल रहा टेढ़ा-मेढ़ा
तभी किसी ने तेज धक्का दिया
और उसने खुद को समय के पार पाया
जहां से वो देख सकता था
लंगड़ाती दुनिया और लड़खड़ाते लोग
वो केवल देख सकता था
हस्तक्षेप उसके अधिकार क्षेत्र से
परे का विषय था
वो मनुष्य का दैवीय संस्करण था
जिसे वक्त के धक्के ने गढ़ा था
वो पत्थर जैसा अमूर्त था
उम्मीद तलाशते लोगो का
आशा का केंद्र बना
एक मजबूर इंसान था वो
जिसे गलती से
भगवान समझ लिया गया था।

© अजीत

No comments:

Post a Comment