Sunday, September 21, 2014

मुमुक्षु

मेरी गति से तुम डर गई
जबकि मै तो हांफता हुआ
पहूँचा था तुम तक
मेरे कदमों में लडखडाहट थी
तुम रेगिस्तान की मृग मरीचिका
के माफिक दिखी
और मैंने दौड़ना शुरू कर दिया
भूल कर यह कि
डर एक मनोवैज्ञानिक सच है
अनुभवों का
आँखे और मन दोनों
मिलकर जितना देख पाती है
उससे कई गुना होता है अनदेखा
तुम्हारे चेहरा का कौतुहल
डर में तब्दील होता देखा
तब यह जाना
विश्वास भी एक बलात कर्म है
जिसमें सहमति शायद ही कभी बन पाती है
आषाढ़ के आवारा बादल सा
बरस कर बह जाऊँगा जल्द ही
सौंप दूंगा तुम्हे
तुम्हारे हिस्से का एकांत
डरो मत !
मै मुमुक्षु हूँ
छलिया नही।

© डॉ.अजीत

*मुमुक्षु= मोक्ष का अभिलाषी

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