Thursday, October 30, 2014

सजा

रोज़ सीवन उधड़ती जाती है
अंदर से झांकता है
एक गुस्ताख दिल
एक आहत मन
कुछ कमजोर लम्हों के हरे शैवाल
देह की गंध से रिसता है
शाम का धुआँ
रोज़ तुरपाई करता है
उघड़ी चमड़ी की
बिखरे रिश्तों की
झूलते आरोपों की
देह के अंदर कैद है
कुछ जटिल रिश्तें
कुछ मन की छटपटाहट
कुछ छद्म आवरण
डर पर जीत हर बार
खुद पर जीत नही होती
ठीक वैसे ही
जीत का अवसाद
हार के द्वंद से गहरा होता है
मन से अनबन का नुकसान यही है
रोज़ उलझा देता है यह
नए समीकरणों में
अतृप्त कामनाओं में
प्राप्य की अरुचियों में
खुद पर जमी गुस्ताखियों की गर्द को
झाड़तें पौंछतें  पहूँच जाते है
यादों के नखलिस्तान में
जूतों पर धूल
आँखों में सपनें लिए
आसमान को देखते हुए
खुद की जिरह के बीच
रोज़ मुकदमा हार जाते है
मगर न जाने क्या वजह है
सजा आज तक मुकर्रर नही हुई
सजायाफ्ता कैद से बडी कैद होती है
किसी मुकदमें का
विचाराधीन बनें रहना।

© डॉ.अजीत

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