Saturday, December 27, 2014

हर साल

बारहकड़ी...
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जनवरी
कुहरे में लिपटी सुबह थी तुम
चाय की चुस्कियों में उड़ती भांप
नाक को नम करती थी
आँखें इन्ही बहानों से
सीख रही थी बोलचाल
मन की लिपि लिखने के अभ्यास
ठंड की स्लेट पर हुए
तुम्हारी ऊंगलियों पर
चॉक के निशाने मिलेंगे
हर साल।
***
फरवरी
चौदह थी शायद
जब तुमनें स्वीकार किया था
दोस्त से ज्यादा
प्रेमी से कम
कुछ हमारे मध्य होना
ये मध्य का रिश्ता
बुद्ध की याद दिलाता है
हर साल।
***
मार्च
हिंदी में बसंत था
मगर तुमसे उर्दू में
गुफ़्तगु करता था
लफ्ज़ लफ्ज़
प्यार की चाशनी में डूबा
ज़बान उसी मिठास से
करवट लेती है
हर साल।
***
अप्रैल
सुबह लहज़े में नरमी
दोपहर में तल्ख़ी
शाम को बेख्याली
रात में गुम हो जाना
इधर मौसम ने करवट ली
उधर तुम्हारे मन ने
सम्बन्धों का संधिकाल था
जिसका महीना बदल जाता है
हर साल।
***
मई
देह की गंध
मन के झरनें पर
पानी पीने आती थी ओक से
तुम्हारी नजदीकी
तपते माथे पर
खुशबू का तिलक लगती है
बिना स्पर्श किए
तुम्हारे गुम हुए रुमाल से
अब भी माथा साफ़ करता हूँ
हर साल।
***
जून
इधर ख़्वाबों की लू चलती तो
उधर बिना पूछे
तुम्हारा ग्रीन दुपट्टा लपेट लेता
मस्तक पर
खुद को यूं बांधना
मौसम से ज्यादा
दिल की जरूरत थी
डिटर्जेंट की खुशबू को
तुम्हारी खुशबू से अलग कर पाता था
हर साल।
***
जुलाई
वो पहली बारिश थी
जिसमें तन के साथ
भीग रहा था मन
भीगने के सुख में
सबसे बड़ा दुःख यह था
नही देख पाएं
एक दुसरे के आंसू
फिर यूं हुआ
आंसू सूखते गए
हर साल।
***
अगस्त
थोड़ी व्यस्त
थोड़ी त्रस्त
थोड़ी मस्त थी तुम
मैने मांगी तुमसे
एक मुठ्ठी खुशी
तुमनें दे दी दो मुठ्ठी
तब से इस महीनें
लड़खड़ा जाता हूँ
हर साल।
***
सितम्बर
अफवाहों
गलतफहमियों
का दौर था
स्पष्टीकरण अधूरे थे
शंका सन्देह के बीच
अपनत्व भटक रहा था अकेला
तमाम गुस्ताखियों के बावजूद
अंत तक रिश्ता सम्भल गया
इस बात पर
ईश्वर को धन्यवाद
भेजता हूँ
हर साल।
***
अक्टूबर
लगभग निर्वासित जीया
तुम्हारी दुनिया से
एक दुसरे में सांस लेती
जिंदगियों की नब्ज़ पढ़ने का हुनर
इस निर्वासन की अधिकतम
उपलब्धि थी
जिसकी शायद जरूरत न पड़े
हर साल।
***
नवम्बर
उम्र भर रहेगा याद
तुम्हें अंजुली भर देख पाया
तुम्हारी आँखों में
सपनें बो आया
मिली दी तुम्हारी रेखाओं से
खुद रेखा
मानकर यह
कल किसने देखा
यूं बेवजह भी याद आऊंगा तुम्हें
हर साल।
***
दिसम्बर
जैसे एक यात्रा का पूरा होना
तुम्हें पाकर खोना
खोकर पाना
खुद को खुद ही
समझाना
तुम्हें हमेशा आसपास पाना
वक्त का गुजरना
मगर
खुद का ठहरना
जैसे वक्त रहा था बीत
सघन होती गई प्रीत
साल का सदी होना
आता रहेगा याद
हर साल।

© डॉ. अजीत










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