Tuesday, February 3, 2015

अक्स

छोड़ो !
ये अक्स की पैमाईश
गिनों साँसों की बंदिशे
जो आते-जाते
तेरे दर पे पनाह पाती है
तुझे देख बेवजह मुस्कुराती है
जिंदगी लम्हों में ठहर जाती है
इबादत का सच
सजदों से जुदा था
पलकों पर दिखता खुदा था
सिमटती जाती हो क्यों
अपनें बेवजह के ख्यालों में
आँखें मूंद कर देखो एक बार
अंधेरों के उजालों में
मेरे मन की गिरह तेरे मन से बंधी है
ये अलग बात
वो जज्बात की तह में दबी है
कभी ऐसा भी हो
तुम बिना कहें वो सब समझ जाओं
आँखों में अपने
मेरे यकीं का काजल लगाओं
सांसो की लय पर छेड़ो
रूह का तराना
बिखरे तबस्सुम को
एक शाम फिर से सजाना
जिस्मों के पते पर भेजो
वो सब खत पुराने
कुछ करवटों के हिसाब
कुछ बेरुखी के अफसानें
मुन्तजिर रहूंगा
उस दिन तक
जब तुम्हें
यकीं आएगा
किसी की जिंदगी में बेवजह होने का
हर बात की कोई वाजिब वजह हो
यह जरूरी नही
कुछ आवारा ख्याल होते है
बेवजह
जिनकी यादों में कटती है
उम्र तमाम
फिलहाल
तुम इतनी ही जरूरी हो
मेरे वजूद में
जितना गैर जरूरी हूँ
तुम्हारी जिंदगी में मै।
© डॉ. अजीत

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