Sunday, February 22, 2015

उम्र

हमारी उम्र में सीधें सीधे
आठ साल का चक्रव्यूह सा
अंतराल रहा होगा
कौन छोटा कौन बड़ा
यह कहना मुश्किल था
जिंदगी के मध्यांतर पर पहूंच
निर्णय लिया जा सकता था
इस बात का
मगर
तब तक धैर्य ने जवाब दे दिया
अहसासों की जगह वक्त ने ले ली
समय का बोध
बुद्धि की नियोजित चाल थी
संतुष्टि और असंतुष्टि का मिला जुला मन
उस वक्त की सबसे बड़ी चालाकी
कही जा सकती है
जिसे देख
हंसा जा सकता था भीड़ में
रोया जा सकता था एकांत में
रोने और हंसने के बीच
उम्र बीत रही थी आहिस्ता आहिस्ता
मगर वक्त ठहरा हुआ था
उस इन्तजार में
जब हमें जन्म लेना था
एक ही दिन
समान घड़ी और समान नक्षत्र में
इस ब्रह्मांडीय घटना का
घटित होना
चमत्कार से कम न था
किसी अभागे पुरुष की तरह
चमत्कार का इन्तजार करना
सबसे बोझिल काम था
इन्तजार दार्शनिक शून्य से भरा होता है
पुरुषार्थ पर प्रश्नचिन्ह के साथ
ये तभी ज्ञात हुआ
जब उम्र घट रही थी
और वक्त बढ़ रहा था
और हम तुम ठहरे हुए थे
अपनी अपनी
मान्यताओं के घने जंगल में
एकदम अकेले।

© डॉ. अजीत





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