Saturday, February 7, 2015

उन दिनों

उन दिनों : जब बहुत समझदार थी तुम
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उन दिनों जब
तुमसे बातचीत बंद थी
तुम्हें भूलने ही वाला था जब
अचानक
तुम्हारा एक पुराना खत
सामने आया
जिस पर लिखा था
अब एक आदत हो तुम
और आदतें यूं ही नही जाती
पता नही वो झूठ था या सच
मगर मुझे यकीन था
यकीन के रूप में बच गई तुम मेरे अंदर
जो न घटता है न बढ़ता है
और न खत्म ही होता है।
***
उन दिनों तुम
थोड़ी जटिल थी
और मै सरल
इन दिनों मै
बेहद जटिल हूँ
और तुम सरल
साथ बदल देता है
मगर इतना
ये सोचा न था।
***
उन दिनों
तुम अचानक उखड़ जाती
बेहद तल्ख हो जाती
मेरे अंदर जो धैर्य
रहता है
उन दिनों की वजह से है
तुमनें सिखाया
अंतिम सांस तक इन्तजार करना
जो आज सबसे बड़ी ताकत है मेरी।
***
उन दिनों
अकेले तेजी से आगे बढ़ा जा सकता था
मगर तुम्हारा हाथ थामे चलना अच्छा अनुभव था
और अनुभव से बढ़कर
एक आश्वस्ति थी
किसी भी परिस्थिति में
अकेला नही हूँ मै
जीवन को विलम्बित कर
तुम्हारे साथ का चयन
एकमात्र सही निर्णय था
पिछले बीस सालों का।
***
उन दिनों
हम वास्तव में क्या चाहतें है
नही जानते थे
हमारी चाहतें वास्तविक नही
थोड़ी काल्पनिक थोड़ी चैतन्य थी
जिनसे गुजर कर
बनना था हमें एकांतसिद्ध
अपनी अपनी शर्तों पर।
***
उन दिनों
स्पर्श गढ़ रहे थे
अपने गहरे आकार
देह की ऊष्मा
सोख लेती थी अपनत्व की नमी
सबसे गहरे परिचय
शुष्क मरुस्थलों में हुए
जहां नदी और समन्दर का फर्क समाप्त हुआ
बिना किसी मरीचिका के।
***
उन दिनों
तुम उलझ गई थी
सही-गलत पाप-पुण्य के मुकदमों में
तुम्हारा बड़प्पन
उकड़ू बैठ आँखों में देखने की
इजाजत नही देता था
पहली बार
खुद के कद का अफ़सोस था मुझे
जो नही समा पा रहा था तुम्हारी हदों में।

© डॉ. अजीत

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