Tuesday, March 10, 2015

बतकही

आठ बतकही: अपनी-अपनी
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भर लेता हूँ तुम्हें
ओक में
तुम रिसती रहती हो
बूँद बूँद
आचमन का सुख
तृप्ति से बड़ा होता है
हर बार।
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चाहती हूँ तुम्हें देना
एक नया आकाश
जहां दूर से केवल
मैं देख सकूं तुम्हें
नजदीकियों की इतनी सी
गुजारिश है।
***
जितना मैंने समझा
प्रेम सूक्ष्म कर देता है दृष्टि
विस्तृत कर देता मन
प्रेम में देख पातें है
पलकों का अंतराल
धड़कनो की सीढ़ियां
उदासी की बंद घड़ी
अपनत्व की बूँद
और अधिकार की गोद।
***
पता है
तुम कभी कभी इतनी खीझ से भर देते हो मुझे
कि तुम्हारी शक्ल तो क्या नाम भी लेना नही चाहती
फिर याद आ जाती है
तुम्हारी छोटी छोटी बातें
जिन पर पहले हंसे बिना नही रहा जाता
और बाद में रोए बिना
तुम अपने किस्म के अकेले हो
इसलिए मेरे हो सदा के लिए।
***
तुमसे आधे दिन से ज्यादा
नाराज़ नही रह सकता
ये आधापन
हमेशा बचा लेता
एक पूरी मुकम्मल कहानी को
और खुश हो जाता हूँ मैं।
***
किसी दिन
तुम्हें तसल्ली से सामने बैठा
देखना चाहती हूँ बस
तुमसें मिले यूं तो अरसा हो गया
मगर देखा एक बार भी नही।
***
सौंप देता हूँ तुम्हें
अपनत्व की पूंजी
मांगता हूँ अक्सर
दो मिनट का उधार
जहां मै और तुम
जी सके
घड़ी बंद करके।
***
सुनो ! एक बात ध्यान से
मेरी बात का
अक्सर बुरा मान जाते हो
अलविदा तो न जाने
कितनी बार कह चुके हो
खुद को यूं न खर्च करों
वक्त बेवक्त
मुझे तुम्हारी जरूरत है
ये बात समझ लो तुम।

© डॉ. अजीत


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