Wednesday, May 13, 2015

सच

उत्तरोत्तर होता जाऊँगा मैं 
बेहद सतही और सस्ता
नही नाप सकेंगी 
तुम्हारे मन की आँखें भी 
मेरी चालाकियां
प्रेम और छल को मिला 
झूठ बोलूँगा मैं 
पूरे आत्मविश्वास के साथ
किन्तु परंतु के बीच रच दूंगा
एक महाकाव्य 
जहां ये तय करना मुश्किल होगा
ये स्तुति है या आलोचना 
खुद को खारिज करता हुआ
निकल जाऊँगा उस दिशा में 
जिस तरफ तुम्हारी पीठ है 
कवि होने का अर्थ हमेशा
सम्वेदनशील होना नही होता है
कवि को समझनें के लिए बचा कर रखों
थोड़ा सा सन्देह 
थोड़ा सा प्रेम
और कुछ सवाल हमेशा
कवि और कविता का अंतर 
एक अनिवार्य सच है 
भावुकता से इतर 
शब्द और अस्तित्व के  बीच
फांस सा फंसा हुआ सच।
© डॉ. अजीत

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