Thursday, August 13, 2015

सरनेम

जब मैं कहता हूँ
मैं भी लिखता हूँ कविताएँ
एक दिलचस्प बातचीत में भी
ख्यात कवि की
अरुचि चरम् पर पहूंच जाती है
कवि चाहता है
एकालाप
कभी उसके
कभी उसकी कविता के बारें में
सवाल यह भी बड़ा है
कविता मेरी या उसकी
कैसे हो सकती है
कविता तो बस कविता है
हाँ कुछ कविता
नाम के सहारे तैर जाती है
लूट लेती है समीक्षकों का मत
कुछ कविताएँ
भोगती है अपने हिस्से का निर्वासन
कविता का वर्णवाद
कम खतरनाक चीज़ नही है
कविता में आरक्षण जैसी सुविधा भी नही
फिर भी हाशिए के लोगो की
कच्चें कवियों की
कविता जिन्दा है
ठीक ठाक पढ़ी भी जा रही है
इस बात पर
थोड़ा खुश जरूर हुआ जा सकता है
मगर थोड़ा ही
क्योंकि आज भी ख्यात कवि की
कविता से ज्यादा कवि के सरनेम में
दिलचस्पी है।

© डॉ. अजित

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