Monday, November 23, 2015

बगावत

कुछ अलहदा से ख़्वाब थे वो
रोशनी के छूटे हुए कतरों के चश्मदीद गवाह
उनके माथे स्याह ठंडे थे
उनके लबो पर आह की नम खुश्की थी
दरख्तों के साये में उन्हें पनाह नही मिली थी
वो धूप की गोद से जबरदस्ती उतार दिए गए थे
दरिया के पास उनकी शिकायतों के मुकदमें थे
मगर वो खामोश बह रहा था
बिना किसी सुनवाई के
कुछ परिंदे मुखबिर बन गए थे अचानक
सपनों की तलाशी ली जा रही थी
ख़्वाबों की सरहदों पर
लम्हों में पिरोयी धड़कने जब बगावत कर बैठी
तब पता चला ये सुबह से पहली रात है
जहां अंधेरा चरागों को सुस्ताने की
नसीहत देने आया है
दुआ में हाथ उठे मगर लब खामोश रहें
सिलसिलों ने करवट ली तो
तुम्हें बहुत दूर पाया
इतनी दूर जहां से
खुली आँख से तुम्हें देखा नही जा सकता था
आँख मूँद कर तुम्हें देखनें की कोशिश की तो
इन्हीं ख़्वाबों की भूलभुलैय्या में खो गया
तुम्हें देखनें का मिराज़
अब तक का सबसे हसीं सदमा था।

© डॉ. अजित

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