Tuesday, December 8, 2015

स्त्री मन

एक स्त्री के मन को
जानने और समझनें के दावें
उतने ही खोखलें है
जितना जीवन वो जानने समझनें के है
स्त्री जीवन की तरह विश्लेषण की नही
जीने की विषय वस्तु है
वस्तु शब्द पर खुद मुझे ऐतराज़ है
मगर शब्दकोश भी बौना है
वो नही बता पाया
आज तक स्त्री की सम्पूर्णता पर एक
प्रमाणिक शब्द
अनुमानों और प्रतिमानों से
बचना चाहिए
जब बात एक स्त्री की हो
क्योंकि
स्त्री धारणाओं में नही जीती
समर्पण उसका स्थाई सुख भी है
और दुःख भी
स्त्री को समझना
दरअसल खुद को समझना है
अनुराग की देहरी पर बैठ
आलम्बन की चक्की पिसते हुए
उसके चेहरे पर जो थकान दिखती है
वो थकान नही है दरअसल
वो उसकी देह पर मन की छाया है
जिनका सौंदर्यबोध कमजोर है
वो नही देख पातें
ऐसी थकान की ख़ूबसूरती
स्त्री का मन
आलम्बन नही स्वतंत्रता चाहता है
न जाने किस उत्साह में जिसे
आश्रय की अभिलाषा समझ लिया जाता है
धरती की तरह
स्त्री जनना जानती है उम्मीदें
इसलिए उम्मीदों के लगातार टूटने पर भी
नही छोड़ती वो अपना एक धर्म
प्रासंगिकता की बहस में
वो निकल जाती है अकेली बहुत दूर
क्योंकि
जब तुम विश्लेषण में रहते हो व्यस्त
कर रहे होते हो अपेक्षाओं का आरोपण
तब एक स्त्री
बीन रही होती है अधूरी स्मृतियों की लकड़ियाँ
जला रही होती है खुद को
ताकि आंच ताप और रोशनी में
नजर आ सके सब कुछ साफ़ साफ़
स्त्री सम्भावना को मरने नही देती
एक यही बात
न उसे जीने देती और न मरने देती
जब कोई करता है स्त्री के अस्तित्व पर भाष्य
देता है मनमुताबिक़ सलाह
स्त्री हंस पड़ती है
उसे प्रशंसा समझ
मुग्ध होने की नही सोचने की जरूरत है
एक यही काम है
जो शायद कोई नही करता।
© डॉ. अजित

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