Monday, January 4, 2016

सीख

कभी कभी मुझे
वो दिखाती आईना
हालांकि मेरा आईना उसकी आँखें थी
वो बोलती अधिकतम कड़वा
जितना बोल सकती थी
उडा देती मेरे अस्तित्व व्यक्तित्व और कृतित्व की धज्जियां
उसकी बातचीत की ध्वनियों में
एक ख़ास किस्म की खीझ होती
उसकी बातें इतनी अपमानजनक लगती कि
बह जाता था मेरा सारा आत्मगौरव
वो देखना चाहती थी
मुझे कुछ प्रतिशत प्रतिबद्ध
और थोड़ा नियोजन से भरा
उसका धैर्य उस वक्त काँप रहा होता
वो नही तय कर पाती
आखिर वजह क्या है
मेरे इतने अस्त व्यस्त होने की
मैं सुनता जाता
सब ताने उलाहनें
यहां तक मेरे अकर्मण्य होंने पर
उसकी खीझ पर भरी टीकाएँ
वो अपनी समस्त वाक् क्षमता से करती
मेरी जड़ता पर अधिकतम् प्रहार
ताकि स्थापित हो सकूं
मैं अपनी कक्षा में उपग्रह की भाँति
और दुनिया को बता सकूं
उसका ठीक ठीक हाल
जिसके लिए उसकी नजर में
सुपात्र था मैं
मैं उस वक्त कोई
प्रतिवाद न करता
स्वीकार करता अपनी कमजोरियां
हर छटे छमाही होता था यह उपक्रम
उसने इस तरह से टोकना न छोड़ा होता तो
आज कुछ और ही होता मैं
इस बात के लिए
एकदिन थैंक्स बोला मैंने
इस बात पर वो हंस पड़ी और बोली
जाओ कविताई करों
एटिकेट्स बाद में सीख लेना।

© डॉ.अजित

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