Saturday, February 27, 2016

औसत

कभी कभी उकता कर एक औसत आदमी
करता है कोशिश
एट पार जाने की
एक्सीलेंस उसे इस कदर डराती रहती है
नही सो पाता वो रात भर एक करवट
दरअसल औसत होना एक बड़ी असुविधा है
इस दौर में
तब तो और भी अधिक जब
क्या तो सब उच्च है
या फिर सब निम्न
कुछ औसत लोग इन दोनों के बीच
फंसे रहते है ताउम्र
उनके लिए नीचे और ऊपर जाने के
दोनों ही रास्ते होते है बन्द
इसलिए वो रेंगते रहते है
अपने ही वृत्त में एक नियत गति से
औसत लोग सबसे ज्यादा सन्देहास्पद समझे गए
इतिहास यही बताता है
औसत होना ठीक वैसा अपराध रहा है
जैसे मनुष्य होकर गरीब होना
औसत आदमी सबसे बड़ा खतरा है
क्योंकि उससे प्रभावित नही हुआ जा सकता
उसको छद्म मान लेना है सबसे आसान
औसत आदमी अक्सर कहता है एक बात
दरअसल बात यह नही थी
उसके औचित्य के सारे तर्क होते है अर्थहीन
वो जीता है एक आदमकद जिंदगी
इस भारहीन अर्थहीन पृथ्वी पर
औसत होना निर्वासित होना भी है
एक ऐसा निर्वासन
जिसकी कभी कोई राजाज्ञा जारी नही होती
मगर जिसे भोगना पड़ता है
अंतिम सांस तक।

© डॉ.अजित

No comments:

Post a Comment