Saturday, July 30, 2016

चाहतें

आओ ! इन नरगिसी आँखों के सदके लूँ
पुखराज़ को तुम्हारी वेणी में गूंथ दूं
ओस के कतरो से पलकों पर कश्ती उतार दूं
शुष्क लबों पर झील का धीरज सजा दूं

मुस्कान और हंसी के बीच की हरकतों पर
कुछ छोटी छोटी मुकरिया लिख दूं
धड़कनों के बीच एक खूबसूरत ग़ज़ल रफू कर दूं
साँसों के पैबंद लगा कर रूह का बोसा ले लूँ

आओ ! तुम्हारी अंगड़ाईयो की स्याही से समंदर को खत लिखूँ
गुस्ताखियों के कागज़ का जहाज़ बनाकर उड़ा दूं
मुहब्ब्तों का लगान मद्धम चराग की रोशनी में पढूं
शिकवों पर नादानी की मुहर लगा बेपते रवाना कर दूं

आओ ! किसी दिन
तुम्हारे कान में फूंक दूं कुछ तिलिस्मी मंत्र
सीखा दूं थोड़ी बदमुआशी थोड़ी अय्यारी
जिस्म के वजीफे मांग लूँ उधार
ताकि उतर सकें दिल की पर ज़मी एक लिज़लिजी काई

आओ ! मगर इस तरह आना
जैसे समंदर के किनारे आते है सीप
जैसे नदियां भूल जाती है अपने उद्गम गीत
जैसे हवा अचानक बन जाती है दक्खिनी
जैसे लोहा टूटकर भी चाहता है धौंकनी

आओ ! किसी दिन इस तरह भी
मेरी तरह नही केवल अपनी तरह
मुन्तजिर हूँ मुफकिर हूँ बेफिक्र हूँ
तुम जरूर आओगी इस तरह भी
एक दिन।

© डॉ.अजित

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