Tuesday, September 20, 2016

चालाकी

जल्दी भरोसा करना
मैंने माँ से सीखा
जल्दी गुस्सा करना
मुझे पिता ने सिखाया
चुप रहना मैंने बहन से सीखा
पहली प्रतिस्पर्धा मुझे भाई ने सिखाई

सपनें देखनें मैंने सीखे
धुर आवारा दोस्तों की सोहबत में
जिनकी बातों की दिलचस्पी
आज भी मरी नही मेरे भीतर

प्रेम करना और छला जाना
प्रेम का घोषित पाठ था
जो लिखा था किसी दसवें उपनिषद में
ये स्व अर्जन स्व निमंत्रण का परिणाम था
इसलिए
प्रेमिका को नही कर सकता रेखांकित
इस संयोग के लिए
माता,पिता बहन और भाई की तरह

इतनी कमजोरियों के साथ बड़ा हुआ मनुष्य
प्रेम बेहद जल्दी में करता है
भरोसा उसकी गोद से उतरने को रहता है आतुर
उसकी पीठ पर लिखे होते है
व्यवहारिक न होने का मंत्र

उसके पास हमेशा रहती शिकायतें
वो रचता है रोज़ अपना एकांत
दुखों का ग्लैमर बचाता है उसका विशिष्टताबोध

वो होता है मेरे जितना चतुर
जो बदल देता है संज्ञा को सर्वनाम में
जैसे मैने बात खुद से शुरू की
और छोड़ दी उस पर लाकर।

© डॉ.अजित

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