Thursday, March 2, 2017

दौर

ये एक ऐसा दौर है
जब आप दो जमा दो कहते हुए भी मारे जाएंगे
और दो जमा दो पांच कहते हुए भी
उल्लास के शोर में हिंसा छिपी है
और देशभक्ति अब बेहद लोकप्रिय चीज़ है
इतनी लोकप्रिय कि
आपके चुप्पी भरे डर को भी देश के खिलाफ
समझा जा सकता है

इस दौर में जो
लिख और बोल रहे है
उनके परिजन विश्व के सबसे अशान्त नागरिक है
वो चाहते है कि चुप रहना सीखना चाहिए
चाहिए में फिर भी एक आग्रह हो सकता है
मगर अब चुप रहना सीखना पड़ेगा
इस बात की ध्वनि आदेशात्मक है

पिछले दिनों में
बदल गए है बहुत से व्याकरण
असुविधा अब एक समिधा है
आप कितने ही नास्तिक क्यों न हो
आपका यज्ञ में शामिल होना अनिवार्य है

झूठ बोलने पर अब खेद का प्रावधान नही है
सच बोलने पर सजा तय है
भीड़ है जयकारा है और सब कुछ
सही होने की एक उपकल्पना है

जबकि
इस दौर में सब कुछ सही नही है
इसी दौर में
कवि को लहुलुहान कर देता डीटीसी का कंडक्टर
क्योंकि कवि को था
सार्वजनिक जगह पर मूतने पर ऐतराज़

दरअसल
ये हर ऐतराज़ पर मूतने का दौर है
जिसमे कमजोर आदमी का घायल होना लाज़मी है
देश के पुनर्निमाण में
वैसे ही कमजोर आदमी की जरूरत नही होती

इस दौर में देश मजबूत हो रहा है
और आदमी कमजोर
मगर हमें इस पर कोई खेद इसलिए नही है
हम उम्मीद से भरे लोग है
इतनी उम्मीद से भरे कि
मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ संगठित करते समय
भूल जाते है हर किस्म का डर

इस दौर में घृणा प्रेम से बढ़कर स्वीकृत है
इतनी स्वीकृत कि
बसन्त में पतझड़ पर हम लिख सकते है कविताएं
विलाप में सुन सकते है तान
बलात्कार को सिद्ध कर सकते है प्रतिशोध का साधन

इन बातों में कोई नूतनता नही है
सब जानते है इन्हें
महसूसते सब है अपने आसपास
मगर कोई कहेगा नही
मैं कह रहा हूँ तो एक जोखिम को दे रहा हूँ निमंत्रण
मैं चाहता हूँ मेरे बाद
दस्तावेज़ में दर्ज हो ये दौर
जब आदमी को आदमी पर भरोसा कम है
आदमी का भरोसा चमत्कार का दास है अब

चमत्कार को नमस्कार करना
नही सीख पाया आजतक
तभी लिख कर ये सब
मिटा रहा हूँ अपना डर
दरअसल
ये भयभीत होने का दौर है
जिसके लिए लिखनी पड़ी है
मुझे इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका।

©डॉ.अजित

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