Tuesday, April 18, 2017

अनिच्छा

ये जो तुम्हारा गूंथा हुआ जूड़ा है
मैं इसमें दूरबीन की तरह झांककर देखना चाहता हूँ
जिसके लिए कर लूंगा
मैं अपनी एक आँख बंद
किसी कुशल खगोल विज्ञानी की तरह
मैं  देखना चाहता हूँ कि
ये  दुनिया कितनी दिमाग के भरोसे  चल रही है
और कितनी दिल के

ये जो तुम धोकर और खोलकर सुखा रही हो अपने बाल
मैं इन्हें हवा में उड़ता हुआ देखना चाहता हूँ एक बार
ताकि पता कर सकूं हवा दक्खिनी है या पहाड़ा
परवा और पछुवा जानने के काफी है तुम्हारी लटें

तुम्हारी गर्दन पर प्रकाशित है
उस समंदरी टापू का नक्शा
जहां ठुकराए हुए लोग जी  सकते है सम्मान के साथ
उनसे  कोई नही करता वहां सवाल  
उसकी प्रतिलिपि मैं ले जाना चाहता हूँ अपने माथे पर
तुम्हारी अनुमति के बाद

तुम्हारे हाथों में सुना है बड़ी बरकत है
आज तक कभी कम नही पड़ा खाना रसोई में
मैं अपनी कलम एक बार तुम्हारे हाथों में देना चाहता हूँ
ताकि क्षमा और प्रशंसा के लिए
कभी कम न पड़े मेरे पास शब्द

ये जो तुम्हारी पलकें है
इनके बाल गिनना चाहता हूँ एक बार
ताकि मैं अपनी बोझ उठाने की क्षमता को परख सकूं
तरलतम परिस्थितियों में

मेरे इस किस्म के छोटे छोटे स्वार्थ और भी है
मगर उनका जिक्र नही करूंगा आज
आज केवल पूछूंगा इतना
क्या तुम्हें इतना भरोसा है खुद पर कि
मैत्री को बचा ले जाओगी
प्रेम के मायावी प्रेत से?

तुम्हें हो न हो मगर मुझे भरोसा है
इसलिए मैं कहता हूँ
ये जो तुम्हारी आँखें है
इनमें साफ-साफ़ दिखता है
भूत और भविष्य एक साथ
मैं दोनों के बीच में वर्तमान
टिकाना चाहता हूँ थोड़ी देर
बशर्ते तुम अनिच्छा से आँखें न मूँद लो.

© डॉ. अजित




2 comments: