सबकुछ ठीक चल रहा था हमारे बीच
दिन भी सात ही होते थे
और महीना भी तीस ही दिन का था
हर तिमाही पर मौसम बदलता था
और छटे छमाही याद की जाती थी
पुरानी प्यारी बातें
फिर अचानक एकदिन
बदल गया काल चक्र
आंधी में उड़ गया हमारा निजी पंचांग
अब सप्ताह होता था दो दिन का
दुनिया जिसे वीकेंड समझ
जश्न की तैयारी में मशगूल होती
उन दो दिनों में भटकता था मैं बेहताशा
महीना अब कोई एक पूरा नही होता था
जेठ में बैसाख और चैत में आषाढ़ के बादल दिखने लगते थे आसमान पर
मौसम अब एक जैसा रहता था
मैं उसके बदलने के इंतज़ार में
थक गया था
दो जोड़ी कपड़ो से बीत गया था साल
न ठंड में ठंड लगी न गर्मी में गर्मी
बरसात रूमानी भी होती है
नही था मालूम
जिस बरसात को जानता था मैं
वो अचानक आती और भिगो देती थी
तार पर टँगी उल्टी बुरशट को
सब कुछ ठीक चलने के बाद
एक दिन चलता है
सब कुछ ठीक न चलना
जो बदल देता है
सारे विशेषण सर्वनाम में
ऐसा नही अब सब कुछ ठीक चल रहा है हमारे मध्य
जो लिख रहा हूँ मैं एक कविता
या बांट रहा हूँ ज्ञान मनुष्य की त्रासदी पर
अब बस इतना है कि
ठीक चलने और ठीक न चलने के बीच
जो कुछ अच्छी बातें याद रह जाती है
एकदम अपनी निरपेक्ष प्रकृति के साथ
उनके भरोसे मैं देख रहा हूँ
माया के उस विचित्र नियोजन को
जिसका दुनिया का
कभी एक कुशल अभियंता था मैं
उसी का आज दिहाड़ी मजदूर हूँ मैं
भूल गया हूँ अपनी सारी निपुणताएं
कर दिया खुद को मांग के हवाले
बस इतना भर याद है
कभी सब कुछ ठीक चल रहा था हमारे मध्य
जो अब नही है।
©डॉ. अजित
दिन भी सात ही होते थे
और महीना भी तीस ही दिन का था
हर तिमाही पर मौसम बदलता था
और छटे छमाही याद की जाती थी
पुरानी प्यारी बातें
फिर अचानक एकदिन
बदल गया काल चक्र
आंधी में उड़ गया हमारा निजी पंचांग
अब सप्ताह होता था दो दिन का
दुनिया जिसे वीकेंड समझ
जश्न की तैयारी में मशगूल होती
उन दो दिनों में भटकता था मैं बेहताशा
महीना अब कोई एक पूरा नही होता था
जेठ में बैसाख और चैत में आषाढ़ के बादल दिखने लगते थे आसमान पर
मौसम अब एक जैसा रहता था
मैं उसके बदलने के इंतज़ार में
थक गया था
दो जोड़ी कपड़ो से बीत गया था साल
न ठंड में ठंड लगी न गर्मी में गर्मी
बरसात रूमानी भी होती है
नही था मालूम
जिस बरसात को जानता था मैं
वो अचानक आती और भिगो देती थी
तार पर टँगी उल्टी बुरशट को
सब कुछ ठीक चलने के बाद
एक दिन चलता है
सब कुछ ठीक न चलना
जो बदल देता है
सारे विशेषण सर्वनाम में
ऐसा नही अब सब कुछ ठीक चल रहा है हमारे मध्य
जो लिख रहा हूँ मैं एक कविता
या बांट रहा हूँ ज्ञान मनुष्य की त्रासदी पर
अब बस इतना है कि
ठीक चलने और ठीक न चलने के बीच
जो कुछ अच्छी बातें याद रह जाती है
एकदम अपनी निरपेक्ष प्रकृति के साथ
उनके भरोसे मैं देख रहा हूँ
माया के उस विचित्र नियोजन को
जिसका दुनिया का
कभी एक कुशल अभियंता था मैं
उसी का आज दिहाड़ी मजदूर हूँ मैं
भूल गया हूँ अपनी सारी निपुणताएं
कर दिया खुद को मांग के हवाले
बस इतना भर याद है
कभी सब कुछ ठीक चल रहा था हमारे मध्य
जो अब नही है।
©डॉ. अजित
बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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