उन्हें घर तोड़ने वाली
स्त्रियां कहा जाता था लोक में
मगर वे थीं
वक्त से लड़ते किसी पुरुष की
सच्ची शुभचिंतक
वें बता सकती थी
उन्हें उनके घर का रास्ता
घोर अंधकार में भी
उनके पास होते थे
सटीक पूर्वानुमान
जैसे वो देखकर आयी हो
पुरुषों का भविष्य
वो प्रेम नही करती थी
प्रेम की बात जरूर करती
वो भी यदा-कदा
उनके लिए पुरुष था
समानुभूति का पात्र
अपने दुःखों का नही था
उनके पास कोई आकर्षक विज्ञापन
पुरुषों की कलाई पर बंधे कलावे का
सबसे कमजोर धागा बनना पसन्द था उन्हें
बशर्ते पुरुष पराजित कर दे
अपनी सभी अशुभताओं को एक साथ
वे दुनिया भर में छिटकी हुई थी
अल्पसंख्यक की तरह
मगर मनुष्य की लौकिक विजय में
हमेशा होता था उनका एक अंश हाथ
उन्हें नही किया जाता था
कभी याद कृतज्ञता के साथ
बल्कि छिपाई जाती थी
उनकी स्मृतियां
बोले जाते थे झूठ
उनका वजूद सम्प्रेषित करने में
असमर्थ था दुनिया का प्रत्येक
रचनात्मक पुरुष
वो थी इस कदर अमूर्त
नही बन सकता था
उनका जीवन में कोई स्थान
वो जीवन में होती थी उपस्थित
किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह
वो जीवन से होती थी विलुप्त
किसी मैदानी नदी की तरह
जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने का निमित्त
उन्हीं के कारण स्थगित होती थी
अनेक आत्महत्याएं
समाप्त होते थे अनेक निजी विवाद
एक गहरे बोध के साथ
वो टोक सकती थी
दोस्त की तरह
वो रोक सकती थी
पहाड़ की तरह
हर गलत रास्ते की तरफ बढ़ा कदम
जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने वाली स्त्रियां
बहुधा उन्हीं के कारण
जुड़ा रह सका घर
ये बात केवल जानता था घर
इसलिए
घर करता था उन्हें याद
दीवारों में बसी सीलन के साथ
और छोड़ आता था
बुनियाद तक
इसलिए नही मिलता
किसी भी घर में उनका कोई चित्र।
©डॉ. अजित
स्त्रियां कहा जाता था लोक में
मगर वे थीं
वक्त से लड़ते किसी पुरुष की
सच्ची शुभचिंतक
वें बता सकती थी
उन्हें उनके घर का रास्ता
घोर अंधकार में भी
उनके पास होते थे
सटीक पूर्वानुमान
जैसे वो देखकर आयी हो
पुरुषों का भविष्य
वो प्रेम नही करती थी
प्रेम की बात जरूर करती
वो भी यदा-कदा
उनके लिए पुरुष था
समानुभूति का पात्र
अपने दुःखों का नही था
उनके पास कोई आकर्षक विज्ञापन
पुरुषों की कलाई पर बंधे कलावे का
सबसे कमजोर धागा बनना पसन्द था उन्हें
बशर्ते पुरुष पराजित कर दे
अपनी सभी अशुभताओं को एक साथ
वे दुनिया भर में छिटकी हुई थी
अल्पसंख्यक की तरह
मगर मनुष्य की लौकिक विजय में
हमेशा होता था उनका एक अंश हाथ
उन्हें नही किया जाता था
कभी याद कृतज्ञता के साथ
बल्कि छिपाई जाती थी
उनकी स्मृतियां
बोले जाते थे झूठ
उनका वजूद सम्प्रेषित करने में
असमर्थ था दुनिया का प्रत्येक
रचनात्मक पुरुष
वो थी इस कदर अमूर्त
नही बन सकता था
उनका जीवन में कोई स्थान
वो जीवन में होती थी उपस्थित
किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह
वो जीवन से होती थी विलुप्त
किसी मैदानी नदी की तरह
जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने का निमित्त
उन्हीं के कारण स्थगित होती थी
अनेक आत्महत्याएं
समाप्त होते थे अनेक निजी विवाद
एक गहरे बोध के साथ
वो टोक सकती थी
दोस्त की तरह
वो रोक सकती थी
पहाड़ की तरह
हर गलत रास्ते की तरफ बढ़ा कदम
जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने वाली स्त्रियां
बहुधा उन्हीं के कारण
जुड़ा रह सका घर
ये बात केवल जानता था घर
इसलिए
घर करता था उन्हें याद
दीवारों में बसी सीलन के साथ
और छोड़ आता था
बुनियाद तक
इसलिए नही मिलता
किसी भी घर में उनका कोई चित्र।
©डॉ. अजित
वाह
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 07/10/2018 की बुलेटिन, कुंदन शाह जी की प्रथम पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteThis was lovely thanks for sharing this
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