बातें बहुत कहना चाहता हूं, कहता भी हूं, पर हमेशा अधूरी रह जाती हैं, सोचता हूं, कहूंगा...शेष फिर...
मेरी मूर्खताओं का
कोई अन्त नहीं था
वे इतनी सुव्यवस्थित थी
कि उन्हें देख
सन्देह होने लगता था
अपने अनुभव और ज्ञान पर
मूर्खताओं को
पहचाने के लिए
एक काम करना होता था बस मुझे
नियमित मूर्खताएं करना।
©डॉ. अजित