मुझसे मिलने के बाद भी
वह बनी रही नियतिवादी
मेरा मिलना भी
उसे भाग्य पर पुनर्विचार के लिए
अवसर न दे सका
कमोबेश मैं भी भीड़ के
दूसरे लोगों जैसा ही निकला
कुछ नया घटित न हुआ
मेरे मिलने के बाद भी
वो कोसती रही ईश्वर और भाग्य को
अलग-अलग ध्वनि और स्वर में
जिसे बोध समझा गया बाद में
जबकि
मैंने चाहा था हमेशा
मैं बदल दूं उसकी खुद के बारे में बनी
सब जड़ मान्यताएं
मैंने चाहा था कि
मैं घटित हो जाऊं उसके जीवन में
किसी आकस्मिक चमत्कार की तरह
जिसके बाद वो हो सके
ईश्वर के प्रति कृतज्ञ
मुझसे मिलने के बाद
उसके हिस्से हँसी आई थी
यह अच्छी बात जरूर कही जा सकती है
मेरे बाद
वो किस तरह से मुझे रखेगी याद
नहीं जानता हूँ मैं
मगर जानता हूँ इतना
मुझसे मिलने के बाद
यदि बदल जाता उसका कुछ अंश जीवन
कितना सुखद होता है सब
उससे मिलने के बाद
मैं भी बना नियतिवादी
और देने लगा
ईश्वर को दोष
कविता की शक्ल में।
©डॉ. अजित
सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
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