Monday, October 7, 2024

कृपया

 'कृपया'

एक निवेदन है

और आग्रह भी

'कृपा' जिसमें 

किसी एक का परिणाम बन जाती है।


**

अपनी छाया के अंदर

कूदकर देखता हूँ 

तो पाता हूँ

वहां वह कठोरता मौजूद है

जो असल जीवन से 

अनुपस्थित है।

**

सपने यदि ऐच्छिक होते तो

कल्पना निस्तेज चीज बन जाती।


**

मैंने खुद को प्रभावित

करने की चेष्टा में

खुद का सबसे अधिक नुकसान किया।


**

हमें देखने के लिए

आँख की न्यूनतम जरूरत थी

मगर

हम आँख से आगे कभी न देख पाए।


©डॉ. अजित 

Wednesday, September 25, 2024

मिलना

 अब हम कभी नहीं मिलेंगे

यह बात कहने में जितनी खराब लगी


उससे कहीं ज्यादा खराब था

मिलने की प्रत्याशा में घुलते रहना

रात-दिन


जैसे ठंडे पानी में धीरे धीरे घुलती है चीनी


षड्यंत्र की तरह बनते-बिगाड़ते रहना

मन के अधूरे कार्यक्रम


मिलना,कभी-कभी मिलना

या कभी नहीं मिलना 

ये सब दिखते भले अलग-अलग हो 

मगर इनके पीछे का केंद्रीय भाव एक है


किसी से मिलना करना चाहिए

तब तक स्थगित

जब तक आप इसे समझने न लगे 

मात्र एक दैवीय संयोग


दो लोग कभी एक जैसी तीव्रता से

मिलने के लिए हो उपलब्ध 

यह एक दुर्लभ बात है


मनुष्य की कामनाओं की दुनिया में

सबसे छोटी है किसी से मिलने की कामना 

यह धीरे-धीरे बना देती है मनुष्य को भाग्यवादी


मिलने और बिछड़ने की 

लाख सम्भावनाओं के बीच

एक सवाल करता है रात दिन हमारा पीछा

कि


कितना बेहतर होता 

अगर हम कभी मिले ही न होते! 


©डॉ. अजित 

Wednesday, August 21, 2024

रक्त संबंध

 (भाई)

-
शास्त्र ने उन्हें भुजा कहा
समाज ने की हमेशा तुलना
मन से सदा भला चाहा
तन निकल गए
एक वक़्त के बाद
अलग-अलग यात्रा पर
किसी अजनबी की तरह।
-
(बहन)

बहन इस तरह से
बनी रही जीवन में
जिसके बिना प्रत्येक शुभता अधूरी थी
मगर
उसके जीवन की असुविधाओं को
नहीं काट पाए समस्त पुण्य कर्म।
-
(पिता)
--
पिता मेरे होने के जैविक सूत्रधार थे
कभी कभी वे अँग्रेजी के शब्द ' एंकर' सरीखे भी थे
मगर जीवन के सभी तूफानों में
वे बंधे रह गए अपनी जगह
जीवन द्वारा जब भी किसी निर्जन द्वीप पर
अकेला पटका गया मैं
तब याद आई पिता की अँग्रेजी वाली भूमिका
जिसे याद कर हिंदी में लिखी मैंने कविता।
-
(माता)

उन्हें पहले किसी का प्रिय होना था
फिर प्रियता को बाँटना था हम सब में
वे उपस्थित थी एक देहात के उस बुजुर्ग की तरह
जिनके सामने लोग जाते रहे बाहर
कभी न लौटने के लिए
उनके हिस्से आया हम सब के हिस्से एकांत
समाचार पत्र की भाषा में यदि कहा जाए तो
वे थी
'मिनिस्टर विदआउट पोर्टफोलियो'
-
(पत्नी)

सप्तपदी के भरोसे वो प्रकट हुई
मेरे भरोसे उसने पैदा की संतान
अपने भरोसे वो टिकी रही जीवन में
उसे अपने भरोसे पर इस कदर था भरोसा
कि वो ईश्वर को देती रहती बार-बार धन्यवाद
और गुस्से में कोसती थी केवल अपने पिता को।

(पुत्र)

उन पर सुपुत्र होने का दबाव था
मगर अपने पिता जैसा न होने का दबाव
उससे गहरा था
वे रहते थे इस द्वंद में
अपने जैसा कैसे हुआ जाए
इसलिए वो अभिवादन को कौशल
और समझौते को जीवन समझते चले गए।
-
(पुत्री)

जिनके पास थी
उनके जीवन में बची हुई थी उत्सवधर्मिता
जिनके पास नहीं थी
वे थोड़े आश्वस्त थे
और थोड़े चिंतित।

© डॉ. अजित




Monday, August 5, 2024

किताबें

 

घर के अलग-अलग हिस्सों में

बेतरतीब पड़ी मिलेंगी किताबें

कुछ पढ़ी, कुछ आधी पढ़ी

कुछ बिना पढ़ी

 

तो कुछ ढूँढने पर भी न मिलने वाली जगह

दुबकी भी हो सकती हैं

 

मैंने किताबें खरीदी

यह कहना कभी रुचिकर न लगा मुझे

इस घोषणा से आती है बाजार की गंध

किताबें आई मुझ तक चलकर खुद

देखकर मेरा आधा एकांत और आधी बेहोशी

 

कुछ किताबें ऐसी भी थी

जो कभी खोलकर नहीं देखी मैंने

मगर उन्हें कोई मांगे तो मैं बोल दूंगा साफ झूठ

 

किताबें मुझे सच बोलना सिखाने आई थी

मगर मेरे द्वारा किताब को लेकर बोले गए झूठ की

बन सकती है खुद एक किताब

 

आज भी कोई किताब कर रहा हो दान

तो मैं सबसे पहले खड़ा हो जाऊंगा कतार में

किसी निर्धन विप्र की तरह

जिसके पास किताबें हैं वो राजा से कम नहीं मेरे लिए

 

मैं बेहद कम पढ़ता हूँ

मगर किताबें पास होती हैं

तो बनी रहती है एक आश्वस्ति

 

कि मेरे पास बचा है बहुत कुछ पढ़ने के लिए

 

किताबों को यूं बेतरतीब पड़ा देख

कोफ़्त होती हैं उन्हें

जो समझते हैं कि केवल खरीदता हूँ

पढ़ता नहीं हूँ किताब

 

वे भूल जाते हैं एक बात कि

किताब पढ़ने का नहीं होता कोई नियोजन

वे बस बनी रहे साथ

तो आसानी से याद होते जाते हैं

जिंदगी के सबसे कठिन पाठ।

 

© डॉ. अजित

 

 

 

 

 

Friday, July 19, 2024

चक्र

 दुनिया का अंत देखने के लिए

समानांतर दुनिया की कल्पना 

नितांत ही जरूरी है

ये अलग बात है कि अंत देखने के बाद 

हमें भोगी हुई दुनिया दिखने लगे समानांतर

दुनिया का अंत देखना उनके लिए निश्चित ही दिलचस्प होगा

जो दुनिया में केवल खोजते रह गए रोमांच।


**

दुनिया का अंत 

देखने की चाह में अनेक चीजों का अंत हुआ

मगर विश्वास सबसे शिखर पर था

तमाम अंत के मध्य।


**

एक दुनिया का अंत हमारे अंदर हुआ

तो हमे लगा यही थी सबसे अस्त व्यस्त दुनिया

जबकि दुनिया आरम्भ से लेकर अंत तक रही नियोजित और स्थिर

तमाम अस्त व्यस्त चीजें हमारी कामनाओं के चूकने की अभिव्यक्ति भर थी।


**

एक बिंदु से चलकर 

कहीं पहुंचना भूगोल की घटना है

एक बिंदु से चलकर 

सही जगह न पहुंचना शायद मनोविज्ञान की

मगर एक बिंदु से चलकर कहीं न पहुंचना उस दर्शन की घटना थी जो हमने कभी नहीं पढ़ा था।


© डॉ. अजित 

कुचक्र

 मुझे कई दोस्तों ने कहा फोन पर

बड़ी लम्बी उम्र है आपकी 

अभी आपका ही जिक्र चल रहा था

या बिल्कुल अभी फोन निकाला था जेब से 

करने ही वाला था आपको कॉल


मैं इस कथन पर हँसता और कहता

ऐसा! 


मेरे परिवार में पुरुष अल्पायु रहे सदा

पिता बमुश्किल पहुंच पाए  पचपन तक

दादा चले गए मात्र अट्ठाईस की उम्र में

दादी को सौंपकर उनके हिस्से का अंधेरा


यदि मैं लम्बा जीया तो पढूंगा यह कविता सस्वर

उन दोस्तो के साथ किसी पहाड़ी गेस्ट हाउस पर 

बनाऊंगा उनके लिए खुद खाना

पिलाऊंगा उन्हें अच्छी चाय या शराब

दूंगा उन्हें दिल से धन्यवाद


क्योंकि मेरा उत्तर जीवन 

उन्हीं के भरोसे हुआ है पार

उस क्रूर कुचक्र से 

जहाँ पुरुष अकेले चल देते हैं 

मृत्यु की यात्रा पर एकदिन 

स्त्री और बच्चों को सौंपकर 

उनके हिस्से की जिम्मेदारी

असमय,अकारण और आकस्मिक।


©डॉ. अजित

Wednesday, May 8, 2024

बेहोशी

 

बहुत सारी कविताएं लिखने के बाद

मुझे हुआ यह बोध

कविताएं कम से कम लिखनी चाहिए

और अगर लिखी भी गई हो अधिक

तो उन्हें सौंप देना चाहिए एकांत के हवाले

 

साल-दर-साल बहुत जगह भाषण देने के बाद

मुझे हुआ यह बोध

सभा, गोष्ठी में बोलना है

सबसे निरर्थक कर्म

उतना बोलना चाहिए

जब कोई केवल आपको सुनना चाहे

चुप रहकर भी संप्रेषित किए जा सकते हैं

जीवन के सबसे गहरे अनुभव

 

बहुत जगह सम्मानित होने के बाद

मुझे हुआ यह बोध

सम्मान की भूख होती है सबसे कारुणिक

अपमान की गहरी स्मृति की तरह

एकदिन हम इस भूख के बन जाते हैं दास

 

बहुत से कार्यक्रमों में

मुख्य अतिथि, मुख्य वक्ता, बीज वक्ता की भूमिका के बाद

मुझे हुआ यह बोध

सबसे झूठे और उथले होते हैं सूत्रधार की प्रशंसा के शब्द

फूल और शॉल का बोझ झुका देता है

साथी वक्ताओं की मूर्खतापूर्ण बातों पर विनीतवश हमारे कंधे

और खिसियाकर हम बजाने लगते हैं ताली

 

बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद

मुझे हुआ यह बोध

छ्पना भी एक रोग है

बिन छ्पे होने लगती है ठीक वैसी बेचैनी

जैसे शराब के नशे में रात में पानी न मिलने पर होती है

 

दरअसल,

जिसे जीवन का विस्तार समझ

मुग्ध होते रहते हैं हम  

वो कामनाओं,मानवीय कमजोरियों की दासता का

होता है एक आयोजन भर

 

जब तक घटित होता है

जीवन का यह अनिवार्य बोध

हम जीवन से घटकर रह जाते हैं उतने कि

हमें मान की तरह प्रयोग कर

नहीं हल हो सकती

ज़िंदगी के गणित की एक छोटी सी समीकरण

 

तब होता यह गहरा अहसास

एक खिन्नता के साथ

लिखने, बोलने, छपने और सम्मान से

कहीं ज्यादा जरूरी था  

लोकप्रिय दबावों से खुद को बचाना

 

एक विचित्र बेहोशी के कारण

जिसे नहीं बचा पाए हम।

 

©डॉ. अजित

 

 

 

Wednesday, May 1, 2024

छल

 

कमोबेश प्रत्येक स्त्री कहती थी यें दो बात

एक बार वो आगे बढ़ जाए तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखती

एक बार भूलने के बाद वो याद नहीं करती किसी को


उसकी 'आह' में है श्राप जितनी शक्ति

जिससे नष्ट हो सकता है किसी का

समस्त संचित पुण्यकर्म

इसी तरह पुरुष दोहराता था यें दो बात

कोई उसे ठीक से समझ न सका आज तक

जल्दी भरोसा करने की उसे

एक खराब आदत रही सदा


दोनों बातें सच थी

दोनों बातें झूठ भी थी


सच और झूठ से इतर

ये दो बातें हजार बातों का निचोड़ भी समझी जा सकती थी


खासकर उन बातों का

जो स्त्री पुरुष एक सही समय पर नहीं कह पाए थे

एक दूसरे को


दरअसल, इन्हें उपचारिक बातें कहना अधिक उचित होगा

इन्हीं बातों के भरोसे स्त्री और पुरुष करते थे

एक दूसरे को माफ

और डरते थे छल से


क्योंकि ये दोनों किस्म की बातें

खुद से किया गया एक सात्विक छल था


जिस दोहराते समय

आसान होता था अपने आँसू पौंछना

और फिर एक लंबी गहरी सांस छोड़ते हुए

अपने सबसे करीब दोस्त यह कहना-


छोड़ो ! यह बात ,कोई दूसरी बात करते हैं।

© डॉ. अजित

 

Wednesday, April 24, 2024

धूमकेतु

 

उसके  माता-पिता के मध्य प्रेम नहीं था

एक ही छत के नीचे वे दो अजनबी थे

 

उसके भाई-बहन भी अपनी वजहों से

खिचे हुए और रूखे थे

 

उसकी  प्रेमिका को उससे कोई शिकायत नहीं थी

मगर शिकायत करती थी उसका हमेशा पीछा

 

दोस्तों के मध्य वो बदनाम था

छिपा हुआ और घुन्ना शख़्स के रूप में

 

स्त्री को देखकर वो घिर जाता था

अतिशय संकोच और शिष्टाचार से

बात-बेबात मांगने लगता था माफी

 

बच्चे उसे देख जाते थे डर

बुजुर्गों को वो लगता था

गैर मिलनसार और असामाजिक

 

अधेड़ उसे देख हँसते हुए हो जाते चुप

 

प्रेम की इतनी जटिलताओं के बीच

वो देखता था विस्मय के साथ सबको

वो करता था संदेह सबकी निष्ठाओं पर

 

वो प्रेम के ग्रह पर पटका गया था

किसी धूमकेतु की तरह

बिना किसी का  कुछ बिगाड़े

वो पड़ा था अकेला निर्जन

 

ताकि एकदिन उसके जरिए

जान सके लोग यह बात

प्रेम में धूमकेतु होना  

कोई वैज्ञानिक घटना नहीं है

 

और बता सके

उसकी उस यात्रा की बारे में

जो प्रेम की धूल से इस कदर अटी पड़ी थी कि

मुंह धोने पर बदल जाती थी

हर बार उसकी शक्ल।

 

© डॉ. अजित

 

 

 

 

Saturday, February 17, 2024

अक्षर

 

अक्सर उसने मुझे घर पहुंचाया

यह कहते हुए कि

कोई बेहद जरूरी शख़्स

घर पर कर रहा है मेरा इंतज़ार


अक्सर उसने मुझे अराजक होने से बचाए

यह कहते हुए कि

कामनाओं की दासता से बेहतर है

उनसे गुजर कर उनसे मुक्त हो जाना


अक्सर उसने मुझसे पूछे असुविधाजनक सवाल

ताकि मेरे पास बचा रहे प्रेम करने लायक औचित्य सदा


अक्सर वो चुप हो गयी अचानक

एक छोटी लड़ाई के बाद


अक्सर हमें प्यार आया उन बातों पर

जो हकीकत में कहीं न थी


अक्सर उसका जिक्र कर बैठता हूँ मैं

कहीं न कहीं

जानते हुए यह बात

उसे बिलकुल पसंद नहीं था अपना जिक्र


 किसी अक्षर के जरिए नहीं बताया जा सकता

क्या था वह जो  घटित हुआ था हमारे मध्य

जो आज भी आता रहता है याद अक्सर।

© डॉ. अजित