"हम शिल्पी बन
तराशते रहे
एक दूसरे को
अपनी आवश्यकतानुसार
भूलकर यह
कि
बाह्य आवरण तो
परिवर्तित हो सकता है
अभ्यंतर नही
क्योंकि,
यह मौलिक होता है
हमारे प्रयास
उत्तरोतर बढ़ते रहे
अपने हिसाब से
एक-दुसरे को ढालते रहे
मूर्तिवत
मगर उस क्षति का
कभी आभास नही हुआ
जो असंख्य टुकडों में
टूटकर बिखरती रही
परस्पर जिंदगियां
इसका निर्धारण तो
संभवत
निर्णायक भी न कर पाए
कि
हमारी शिल्पधर्मिता ने
सर्जन किया
अथवा
विखंडन
एक बात जो
उभर कर सामने आई
वह थी
जिसे समझ कर
अपनी कला
हम प्रयास कर रहे थे
ढालने का एक दुसरे को
वह कला नही
एक विकार था
आवश्यकता नही
प्रयोग था
एक ऐसा प्रयोग
जिसके परिणाम
हमे आजीवन बुत बनकर
देखने पड़ेंगे
होकर
संवेदनशून्य
भावशून्य....."
डॉ.अजीत
ek sach bat kahoo ajeet ji kai vershoo se apka preshenk hoon mager is kavita ne kheen aisee chuaa hai..i even can't tell u..
ReplyDelete"AAINNA" hain apki ye kavita...!!!