Thursday, January 10, 2008

यथार्थ

"शायद
तुम्हे याद हो
आज भी वह रात
जब हम हाथो मे
लिए बैठे थे हाथ
कर रहे थे
एक दुसरे की भावनाओ को
आत्मसात
मिलकर यथार्थ पर
भावुकता का लेप
लगा रहे थे
अनायास ही सारे
स्वप्न पूर्ण होते
नज़र आ रहे थे
साथ ही अलग-अलग
किस्म की प्रेम की
परिभाषाऐ भी बना रहे थे
परन्तु
कभी-कभी
अकारण ही
यथार्थ की
एक हलकी सी चोट
सब कुछ तोड़ देती है
तब
प्रतीत होता है
कि
हम कितने कल्पनाजीवी है
लगती है सारी बातें
खोखली
एकदम बकवास
सजल नेत्रों मे
तैरते हुए स्वप्न
उत्पन्न करते है
एक विचित्र सा
प्रश्नबोधि अहसास
जो प्रश्न पूछते है
हमसे करते हुए
एक अपराधी सा व्यवहार
कि
किस अधिकार से
यथार्थ से छुपा कर नज़र
किसी को लेकर
निकल पड़े थे प्रेम डगर
जब इतनी क्षमता नही
कि
किसी को कर सको
सस्नेह अंगीकार
तब क्यों ?
अंतहीन वेदना बांटने का
करते हो व्यापार
तब हम
निरुत्तर सहमे से
खामोश खड़े रह जाते है
और
अंत मे
स्वयं को ही अपराधी पाते है
सही ही तो है
कि
जो छोड़ कर अपना
सब कुछ
हमारे साथ जीने -मरने की
खाती है कसमे
विवशत:
उन्हें
हम क्या दे पाते हैं
बस ....
भीगी पलके....."

डॉ.अजीत

4 comments:

  1. संवेदनशीलता भरपूर है। शिल्प भी जोरदार। कविताएं प्यारी हैं। मैंने आज कई पढ़ीं। उम्मीद है, लेखन जारी रखेंगे।
    यशवंत
    http://bhadas.blogspot.com

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  2. maine apki sabhi kavitayen padhi.
    sabhi ek-doosre se sambandhit hain.
    per unme se 'Yatharth' sabse achhi lagi. ek madad chahiye ki ye comment hindi me kaise likhoon. batane ka kasht karen.

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  3. बहुत खूबसूरत कविता है !

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