"सम्बन्ध होने का अर्थ
यदि भ्रम प्रतीत हो
तो
तब अपने आत्मीय भाव
प्रमाणित करना
असंभव सा प्रतीत होता है
क्योंकि
यह ठीक वैसी बात है
जैसे निर्वात मे ध्वनी प्रसार खोजना
निर्वात यद्यपि अमूर्त वस्तु है
और संबंधो का आधार भावनाएं
परन्तु
भावना यदि
वेदना की संवाहक बन कर
नए अर्थ तलाशे
तो
यह एक पक्षीय
न्याय का गणित प्रतीत होता है
जिसके
अपराधी एवं न्याय दंड निर्धारक
हम स्वयं होते हैं
मुझे ज्ञात है
कि
तुम्हे मेरी उपदेशात्मक शेली
बिल्कुल पसंद नही है
परन्तु
यथार्थ और
समय प्रयोग का समन्वय
किसी नए उपजते अर्थ
का आधार नही हो सकता
शायद यही
वह महीन अंतर है
जिससे मैं
तुम्हारे हृदय से दूर
और मस्तिष्क के करीब हूँ
और मेरा यह पागलपन
कि
ज्ञात होकर भी
मैं मौन पथ अनुचर
कि भूमिका मे हूँ
क्या तुम्हे कभी
कोई संवेदना नही
झकझोरती
मेरी भूमिका के सन्दर्भ मे ?
यह तुम्हारे मानस
और मेरी सहृदयता
दोनों पर
एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है..!"
डॉ.अजीत
"संबंध होने का अर्थ यदि भ्रम प्रतीत हो...."सही कहा आपने आजके संबंधो मेरी भ्रम ही है.
ReplyDeletebadhiyaa
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