अधिकार एवं अपनत्व
दोनों के मूल मे
होती है
एक अंतरंगता
मौन संवाद ही
काफ़ी होता है
परस्पर भाव
संप्रेषित करने के लिए
और यदि
कभी कुछ कहना हो
विशेष
शब्दों का आभाव
प्रतीत होता है
हमे
संबंधो की दिशा
होती है स्वत उन्मुक्त
बन्धन मे बांधना भी
चाहे तो
सम्भव नही होता है
आज अधिकार से
यह भूमिका लिखी है मैंने
मगर
अपनत्व
मुझे कायर बना देता है
अपने भाव भी
ठीक ढंग से संप्रेषित नही
कर पा रहा हूँ
संभवत
तुम असमंजस मे हो
कि
मैं क्या कहना चाहता हूँ
दरअसल
ये अपनत्व का भय
मुझे बना रहा हैं
अधिकार शून्य
क्योंकि
मैं जानता हूँ
कि
भावावेश मे
अधिकारवश कही गई
हरेक बात का
तुम आजीवन
पालन करोगी
जबकि
मैं
अपनत्व एवं अधिकार से
तुम्हे भावनाओ का
संवाहक मात्र
नही देखना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ
तुम्हे पार्थसारथी की
भूमिका मे
यह तभी सम्भव होगा
जब हम
परस्पर मुक्त हो
महसूस करे
जीवन समर
और
देखें मित्रता पर
'अनुभव' का असर ..."
डॉ.अजीत
maine dekhi aapki kavita.achchi hai.blog ke bare mai mujhe jyada idea nahi hai.sudipti
ReplyDeletedr ajeet mujhe nahi pata tha ki app itni gahra likhate aur sochate hain.apki kavita padhkar acha laga. apna paryas jari rakhna subhkamna ke sath apki dost arti my email id is aru.aarti@gmail.com
ReplyDeleteachchhi lagi
ReplyDeleteहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
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