Wednesday, August 25, 2010

एक ख्याल

कुछ बेतरतीब ख्याल

और बेफिक्री की फिक्र मे

गुजरता वक्त

स्याह होती रात से

ज्यादा डरावना होता

आधी रात का अधूरा सपना

और पुराने रिश्तों को बुनती

नई सलाई

उस अहसास को

चाट रही है रात दिन

जिस पर नुक्कड के नाई की दुकान

पर अपनी बारी का इंतजार करना बुरा

नही लगता था

अब बहुत जल्दी बहुत कुछ बुरा लग जाता है

और अदरवायिज़ भी

पुराने दोस्त का तंज नही चुभता

कहकहो की हँसी चीर देती है बहुत कुछ

वक्त बदला

या वक्त ने मिज़ाज बदला

पता नही कुछ

पर कुछ तो बदला है

क्योंकि अब

उदासी बेवजह नही होती

पहले की तरह

लेकिन मेरे होने की वजह

सुबह का सवाल बन कर

घिर आयी है शाम को....

पुराने दरख्त की और लौटते

पंछियों को देखकर एक नम

हँसी लौट आई और कहा

छोड ये देश

चल परदेश

बदलकर भेष...।
डा.अजीत

1 comment:

  1. बदल कर भेष फकीरों का..
    खुदा का करम देखते हैं...


    बहुत ही अच्छा लिखा है आपने.

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