Thursday, August 26, 2010

किस्सा

तवज़्जो का तालिब दिल निकला

तकसीम होकर भी

हासिल सिफर निकला

वो ठहर कर प्यासा रह गया

मुनासिब दिल के वतन नही निकला

मुजरिम भी वो मुंसिफ भी वो

गवाह सच बोलकर बच निकला

दोस्त यारी के किस्सो मे रह गये

पुरानी डायरी से आज उनका खत निकला

हाजिरजवाबी दगा दे गई

वक्त इतना संगदिल निकला

तन्हा खडा था जो भीड मे

वो ही बडा गाफिल निकला

उम्मीद-ए-वफा जुर्म से कम नही इस दौर मे

अदावत जिससे थी वो ही दोस्त निकला

चलो भीड मे फिर से खो जाए

मिलने का यही सबब निकला...।

डा.अजीत

2 comments:

  1. आपकी पुरानी पोस्ट्स पढ़ कर बहुत चमत्कृत हुआ हूँ...आप में कवि बनने की अपार संभावनाएं हैं...बधाई
    नीरज

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