Friday, August 27, 2010

अंजाम

अब जीने का रोजाना अन्दाज बदलना पडता है

भीगें पर वाले परीन्दे को परवाज़ बदलना पडता है

जवाब उनसे मांगू क्या अपनी हसरत का

रिश्तों का लिहाज करके सवाल बदलना पडता है

अंजाम का अब डर ज्यादा है पहले से

ख्याल आने पर आगाज़ बदलना पडता है

मिलकर खो जाने का डर वो कब कह पाया

अब कहता है तो ज़ज्बात बदलना पडता है

महफिल मे जान आ जाती थी जिसके आने से

अब मिलने पर उसको नाम बदलना पडता है

वक्त के फिकरे जब कस जातें है

बिकना है तो अपना दाम बदलना पडता है

डा.अजीत

7 comments:

  1. महफिल मे जान आ जाती थी जिसके आने से
    अब मिलने पर उसको नाम बदलना पडता .

    बहुत सटीक अभिव्यक्ति ...यही होता है ..

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  2. आदरणीय संगीता जी,

    सर्वप्रथम हार्दिक धन्यवाद मुझ निर्वासित और टिप्पणियों के लिए तरसते उपेक्षित ब्लागर की रचना आपको अच्छी लगी और आपने उसको चर्चामंच के लिए चुना। तीन साल से ब्लागिंग करते हुए भी मै अभी तक वो गुरुमंत्र नही सीख एक दो चार लाईनो पर ही 60-70 वाह-वाह के शब्द मिल जाएं।आपने इज्जत बख्शी सो तहेदिल से शुक्रिया। बाकी आप मुझे बताएं कि मुझे क्या करना होगा चर्चामंच पर?

    सादर

    डा.अजीत

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  3. जवाब उनसे मांगू क्या अपनी हसरत का
    रिश्तों का लिहाज करके सवाल बदलना पडता है

    बहुत खूबसूरत और गज़ब की पंक्तियाँ हैं अजीत जी आप की इस रचना में...वाह...देरी से आने के लिए तहे दिल से माफ़ी मानता हूँ...लिखते रहें...धीरे धीरे ग़ज़ल के व्याकरण भी जान जायेंगे...
    नीरज

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  4. महफिल मे जान आ जाती थी जिसके आने से अब मिलने पर उसको नाम बदलना पडता है वक्त के फिकरे जब कस जातें है बिकना है तो अपना दाम बदलना पडता है बहुत सटीक अभिव्यक्ति
    संगीता जी के ब्लॉग पर आपकी टिपण्णी पढ़ी मन व्यथित हुआ और साथ ही आपके ब्लॉग का लिंक भी मिला

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