Saturday, September 11, 2010

ख्वाब

ख्वाबों की कस्ती पर लफ्ज़ो की गहराई

तासीर अपनी देर से समझ मे आई

बदला ने जीने का तरीका न अदब

तबीयत कभी अज़ीजो से न मिल पाई

मुझे एक पल मे जीने का शौक है

उसमे सारी जिन्दगी की फिक्र समाई

मील का पत्थर बन कर यह देखा

रास्तो ने सफर मे नजर चुराई

मंजिल का पता मिला तो हुआ अहसास

उम्र सारी बेवजह बिताई

बाकी मुझमे रह गया तल्खियों का गुबार

शहर मे रहकर ये दौलत कमाई

शराफत बेशर्म होकर पास से गुजर गई

बुरे वक्त मे काम आई बुराई

फांसलो का पैमाना जब उसका देखा

न नाप सका चार कदम की गहराई...।
डा.अजीत

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