अक्सर
पुराने
लम्हों को
सोच कर
शाम को
उदास हो जाता हूं
नया आदमी बनने
की जिद मे
एक जिरह रोज
खुद से होती है
पुराना होना
किसी गुनाह से
कम नही
अब वो वक्त नही
जिसमे किस्से
जरुरी थे मुकाम के
अब किसी का
होना सिद्द करना
पडता है
अपने होने की तरह
शाम,उदासी और
लौटते पंछी
रोज जोड देते
कुछ हरफ
मेरे वजूद मे
जिसकी किस्सागोई
मेरे बाद होगी
शायद तब वो
यकीन पैदा हो
जिसका शगल मेरे
साथ चला जाएगा
और दूनिया को
अफवाह की तरह
यकीन आयेगा
मेरा ऐसा होने का...।
डा.अजीत
दूनिया को
ReplyDeleteअफवाह की तरह
यकीन आयेगा
मेरा ऐसा होने का...।
अपने वजूद को तलाशती ...अच्छी रचना
.
ReplyDeleteअजीत जी,
बहुत सुन्दर नज़्म लिखी है आपने , लेकिन जाने क्यूँ एक उदासी सी झलक रही है इन पंक्तियों में...आखिर क्यूँ ?
.
ise udaasee se peecha chudaaeeye mere bandhooo......
ReplyDeleteआज तो आपकी पोस्ट की पहली लाईन ने ही आईना दिखा दिया जी, हमें बाहर का दिख जाता है और अपने अंदर का नहीं दिखता।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नज़्म लिखी है आपने