Wednesday, June 11, 2014

हितचिंता

मेरे प्रस्ताव इतने खुले किस्म के थे
उनमे गुह्यता के आकर्षण शेष नही बचे
मेरे चुनाव इतने अप्रासंगिक किस्म के थे
उनकी उपयोगिता कभी नही रही
मेरे सामंजस्य इतने अर्थहीन किस्म के थे
वो कभी तुम्हें बाँध नही पाएं
मेरे शब्द इतने खोखले किस्म के थे
उनमें अभिव्यक्ति का संकट हमेशा बना रहा
मेरे अनुमान इतने अतार्किक किस्म के थे
वो वस्तुस्थिति का कभी अंदाजा नही लगा पाए
मेरी अपेक्षाएं इतनी सतही किस्म की थी
वो प्रेम,मित्रता और परिचय में भेद न कर सकी
मेरी जटिलताएं इतनी सघन किस्म की थी
उसमें तुम्हारा पनपना असम्भव था
मेरा होना न होने से बड़ा था
तुम्हारे एकाधिकार की त्रिज्या जितना
सीमित नही था मेरा व्यास
जीवन के दो विपरीत ध्रुवों पर टिके
यह औपचारिक रिश्तें
भरभरा कर गिरने के लिए ही शापित थे
अफ़सोस दरअसल मनुष्य के अपूर्ण स्वार्थ की
वह रुपरेखा है जिसे षड्यंत्र की शक्ल में वह
नेपथ्य में रचता है
ज्ञानीजन इसे आशा कहते है
प्रेम हो मित्रता या मात्र परिचय
सबकी आयु निर्धारित होती है
ठीक मनुष्य की तरह
सुख और दुःख दोनों ही
प्रारब्ध और नियति की अवैध संतान है
अपने हिस्से का सुख-दुःख भोगने के बाद
सपनों की शिकायत करने का
अधिकार छोड़ना पड़ता है
जितनी जल्दी यह कौशल सीख लोगी
सुविधा से कटेगा संताप
इस सलाह को
मेरी अंतिम हितचिंता समझ सकती हो
वैसे सच तो यह भी है
जीवन में अंतिम कुछ नही होता।
© डॉ. अजीत






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