वो पढ़ लेती थी
लिखे हुए अक्षरों के बीच पसरे निर्वात को
वो सूंघ लेती थी
सच को झूठ के जंगल के बीच
वो देख लेती थी
माथे की शिकन को मीलों दूर
वो समझ लेती थी
अनकही बात का मूल्य
किसी की फ़िक्र करते हुए जीना
उसकी आदत में शामिल था
नही देख सकती वो
उदास बच्चें
अवसाद में दोस्त
अनमनें परिजन
खुद को भूल दिन भर
ढोंती रहती न जाने
किस-किस के हिस्से का तनाव
खुद की पीड़ाओं पर बात करना
उसके लिए ऊब का विषय था
वो कविता की नही
जीने और समझने का विषय थी
जब यह न कर सका
तो लिख कर कुछ शब्द
निकला आया
उससे बेहद दूर
क्योंकि अपने मतलब के लिए
उसे खर्च नही करना चाहता था
उसका बचा रहना
वक्त और हालात से लड़ते
लोगो के लिए जरूरी था
केवल खुद के बारें में ही न सोचना
उसका पढ़ाया हुआ पाठ था
जो काम आया
इस मुश्किल वक्त में।
© डॉ. अजीत
लिखे हुए अक्षरों के बीच पसरे निर्वात को
वो सूंघ लेती थी
सच को झूठ के जंगल के बीच
वो देख लेती थी
माथे की शिकन को मीलों दूर
वो समझ लेती थी
अनकही बात का मूल्य
किसी की फ़िक्र करते हुए जीना
उसकी आदत में शामिल था
नही देख सकती वो
उदास बच्चें
अवसाद में दोस्त
अनमनें परिजन
खुद को भूल दिन भर
ढोंती रहती न जाने
किस-किस के हिस्से का तनाव
खुद की पीड़ाओं पर बात करना
उसके लिए ऊब का विषय था
वो कविता की नही
जीने और समझने का विषय थी
जब यह न कर सका
तो लिख कर कुछ शब्द
निकला आया
उससे बेहद दूर
क्योंकि अपने मतलब के लिए
उसे खर्च नही करना चाहता था
उसका बचा रहना
वक्त और हालात से लड़ते
लोगो के लिए जरूरी था
केवल खुद के बारें में ही न सोचना
उसका पढ़ाया हुआ पाठ था
जो काम आया
इस मुश्किल वक्त में।
© डॉ. अजीत
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20-11-2014 को चर्चा मंच पर तमाचा है आदमियत के मुँह पर { चर्चा - 1803 } में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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