तुम देवता बनने की
फिराक में थे
मैत्रयी पुष्पा कहती है
स्त्रियों को देवताओ से लगता है डर
वो खुश रहती है
एक आम इन्सान के साथ
बशर्ते उसे अपने आम होने का
अभिमान या ग्लानि न हो
स्त्री चाहती है
एक छोटा आकाश
जिसमें देख सके वो अपने चाँद को
बेहद अपने करीब
तुम्हारी बेहद मामूली बातें
स्त्री को प्रभावित कर सकती है
बशर्ते उनमें सच्ची संवेदना हो
तुम्हारा यह सोचना कि
एकदिन कोई भौतिक सफलता
दूर कर देगी उपेक्षा से उपजी दूरी
बेहद गलत है
स्त्री नही चाहती सफलता की कीमत पर
रोज रोज किस्तों में किसी अपने को खोना
स्त्री को एक ही बात डराती है
कोई उसका पढनें लगे मन
उस पुरुष की समझ पर संदेह और डर
दोनों एक साथ उपजता है
क्योंकि वो इसकी अभ्यस्त नही होती
स्त्री क्या चाहती है
यह समझने के लिए
दरअसल
स्त्री होना पड़ता है
जिसकी इजाजत
तुम्हारा पुरुष होने का अभिमान कभी नही देगा
वाचिक दिलासाएं
शब्दों का रचा भ्रम
प्रेम/अप्रेम का भेद
खूब समझती है स्त्री
चूँकि वो उम्मीद को जनना जानती है
इसलिए बचा कर रखती है
एक मुट्ठी उम्मीद कि
एक दिन तुम उसे समझोगे
ठीक उसी की तरह।
© डॉ.अजीत
फिराक में थे
मैत्रयी पुष्पा कहती है
स्त्रियों को देवताओ से लगता है डर
वो खुश रहती है
एक आम इन्सान के साथ
बशर्ते उसे अपने आम होने का
अभिमान या ग्लानि न हो
स्त्री चाहती है
एक छोटा आकाश
जिसमें देख सके वो अपने चाँद को
बेहद अपने करीब
तुम्हारी बेहद मामूली बातें
स्त्री को प्रभावित कर सकती है
बशर्ते उनमें सच्ची संवेदना हो
तुम्हारा यह सोचना कि
एकदिन कोई भौतिक सफलता
दूर कर देगी उपेक्षा से उपजी दूरी
बेहद गलत है
स्त्री नही चाहती सफलता की कीमत पर
रोज रोज किस्तों में किसी अपने को खोना
स्त्री को एक ही बात डराती है
कोई उसका पढनें लगे मन
उस पुरुष की समझ पर संदेह और डर
दोनों एक साथ उपजता है
क्योंकि वो इसकी अभ्यस्त नही होती
स्त्री क्या चाहती है
यह समझने के लिए
दरअसल
स्त्री होना पड़ता है
जिसकी इजाजत
तुम्हारा पुरुष होने का अभिमान कभी नही देगा
वाचिक दिलासाएं
शब्दों का रचा भ्रम
प्रेम/अप्रेम का भेद
खूब समझती है स्त्री
चूँकि वो उम्मीद को जनना जानती है
इसलिए बचा कर रखती है
एक मुट्ठी उम्मीद कि
एक दिन तुम उसे समझोगे
ठीक उसी की तरह।
© डॉ.अजीत
सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
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