Friday, November 7, 2014

गजल

सम्भालों अपने रंज ओ' गम कि खत्म होता हूँ मैं
अपने मतलब न निकालो कि हसंते हुए रोता हूँ मैं

वक्त की रंजिशें है कि पाकर सबको खोता हूँ मैं
रोशनी कमजोर है कि धागा गम का पिरोता हूँ मैं

जमीं परेशां में है कि कांटे रोज सुबह बोता हूँ मैं
आसमां हैरत में है कि फूलों पर क्यूँ सोता हूँ मैं

तन्हाई मायूस है कि बस तेरे साथ खुश होता हूँ मैं
हकीकत तल्ख है कि ख़्वाबों में तुझे संजोता हूँ मैं

© डॉ. अजीत



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