Sunday, January 11, 2015

याद

एक मफलर
तुम्हारी याद का
गले से लिपटा पड़ा है
इस सर्दी में जब कान
होते जाते है लाल
उसी की मद्धम आंच से
बचाता हूँ खुद को
कुछ बैरंग खत मेरी जेब में है
डाकिए ने लाल कलम से
लिखा है उन पर
'लेने से इनकार किया'
इसी इनकार में
तलाशता हूँ
अपनी गुस्ताखियों की वाजिब वजहें
घटती बढ़ती धड़कनों पर
लगा देता हूँ कान
ताकि सुन सकूं
तुम्हारे नाम का संधि विच्छेद
तुम्हारे नाम पर कुछ
जबरदस्ती की दिलासाएं है
मेरे पास
इस भरी सर्दी में
जलाकर उनका अलाव
सेंकता हूँ खुद का वजूद
अब जब तुम
कहीं भी नही हो
तुम्हें बांधें रखता हूँ
मन की गिरह से
रिसते हुए तुम खत्म हुई
और पता भी नही चला
अगर पता चल भी जाता
तब भी कहां रोक पाता तुम्हें
रोकने के जिस अधिकार की जरूरत थी
वो बेरोजगारी में भी न कमा पाया
फिलहाल तो
तुम्हारी यादों की पक्की
नौकरी पर हूँ मै
लापरवाही दबें पांव आती है
और ले जाती है
सबसे कीमती समान
बिना बताए
ये पहली और आख़िरी बात
होश में समझ पाया।
© डॉ. अजीत

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