Monday, January 12, 2015

मतिभ्रम

जब खुद की लिखी बातों से
चरम असंतुष्ट होता हूँ
उन्हें खारिज़ कर रहा होता हूँ
वहीं बातें
लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ती जाती है
मेरे पास एक कोरा विस्मय होता है
उस समय
इसके ठीक उलट
खुद के लिखे जिन शब्दों पर
खुद ही होता है रश्क
आत्ममुग्धता में
थपथपाना चाहता हूँ खुद की पीठ
वो शापित हो जाती है
उपेक्षा का निर्वासन झेलने के लिए
तमाम बुद्धजनों की साध संगत के बावजूद
नही सीख पाया
लोक की लोकप्रिय और खुद की प्रिय
रचनाओं के मध्य संतुलन साधना
शायद
मै समय से थोड़ा आगे-पीछे चल रहा हूँ
मतिभ्रम का शिकार भी हो सकता हूँ
इसलिए अपने दोस्तों पाठकों
की आँखों में आँखें डालकर
पूरे आत्मविश्वास से कहता हूँ
मेरा एक लोकप्रिय कवि/लेखक बनना
सदैव संदिग्ध है
ऐसा कहना आपके
प्रेम और अपनत्व का अपमान नही
बस खुद की सीमा की
एक ईमानदारी
आत्मस्वीकारोक्ति भर है
जो देर सबेर सबको
समझ आनी ही है।

© डॉ. अजीत

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